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________________ काव्य है। श्लेष, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास आदि अलंकारों की स्थानस्थान पर नैसर्गिक उपस्थापना हुई है। प्रकृति चित्रण में कवि पूर्ण सिद्धहस्त हैं। विशेषकर शरद ऋतु के वर्णन में उनकी प्रखर प्रतिभा सामने आई है। जड़ एवं चेतन दोनों पर ही शारदीय सुषमा के प्रभाव का कवि ने बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। यथा - तो हरिवइजसवन्थो राहवजीअस्स पढमहत्थालम्बो। . सीताबाहविहाओदहमुहवज्झदिअहो उवगओ सरओ॥... अर्थात् - सुग्रीव के यश-मार्ग, राघव के जीवन के प्रथम हस्तालम्ब, सीता के आंसुओं के विघातक और रावण केवध दिवस के रूप में शरद उपस्थित हुआ। 445. सेयंसचरिय __ ग्यारहवें तीर्थकर श्रेयांसनाथ पर दो प्राकृत पौराणिक काव्य उपलब्ध हैं। प्रथम तो वृहदगच्छीय जिनदेव के शिष्य हरिभद्र का जो सं. 1172 में लिखा गया था। इसका ग्रन्थाग्र 6584 लोक प्रमाण है। द्वितीय चन्द्रगच्छीय अजितसिंहसूरि के शिष्य देवभद्र ने ग्रन्थाग्र 11000 प्रमाण रचा था। इसकी रचना का समय ज्ञात नहीं फिर भी यह वि. सं. 1332 से पहले बनी है क्योंकि मानतुंगसूरि ने अपने संस्कृत श्रेयांसचरित (सं. 1332) का आधार इस कृति को ही बतलाया है। इस रचना का उल्लेख प्रवचनसारोद्धारटीका में उनके शिष्य सिद्धसेन ने किया है। देवभद्र की अन्य रचनाओं में तत्त्वबिन्दु और प्रमाण प्रकाश भी है। 446. सोमप्रभाचार्य इस कुमारपाल-प्रतिबोध (कुमारवाल-पडिबोह) की रचना सोमप्रभाचार्य ने की है। सोमप्रभ के पिता का नाम सर्वदेव और पितामह का नाम जिनदेव था। ये पोरवाड़ जाति के जैन थे। सोमप्रभ ने कुमार अवस्था में जैन-दीक्षा ले ली थी। वे बृहद्गच्छ के अजितदेव के प्रशिष्य और विजयसिंहसूरि के शिष्य थे। सोमप्रभ ने तीव्र बुद्धि के प्रभाव से समस्त शास्त्रों का तलस्पर्शी अभ्यास कर लिया था। वे महावीर से चलनेवाली अपने गच्छ की 40वीं पट्टपरम्परा के आचार्य थे। इनकी अन्य रचनाएँ शतार्थीकाव्य, शृंगारवैराग्यतरंगिणी, सुमतिनाथचरित्र, सूक्तमुक्तावली आदि मिलती है। इनका शतार्थीकाव्य की रचना के कारण शतार्थिक उपनाम भी 376 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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