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प्रयोग अधिक हुआ है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का सर्वाधिक प्रयोग प्रवरसेन ने किया है। अनेक चित्रों में कवि ने उपमा के साथ अन्य अलंकारों का समावेश भी कर दिया है। एक स्थान पर वे कहते हैं कि राम की दृष्टि सुग्रीव के वक्षस्थल पर वनमाला की तरह, हनुमान पर कीर्ति के समान, बानर सेना पर आज्ञा के समान, और लक्ष्मण के मुख पर शोभा के समान पड़ी -
सोहव्व लक्खणमुहं वणमालव्व विअडं हरिवइस्स उरअं। कित्तिव्व पवणतणअं आणव्व बलाइं से विलग्गइ दिट्टी ॥
आ.।, गा. 48 उत्पेक्षा अलंकार कवि को सर्वाधिक प्रिय है। एक दृश्य के कई पक्षों को चित्रित करने में कवि सिद्धहस्त हैं। वहाँ उत्प्रेक्षा की श्रृंखला जैसी बन जाती है। सागर को विराटरूप, विस्तार और आतंकित करने वाले स्वरूप को प्रकट करते हुए कवि कहता है कि सागर मानों वृक्षहीन पर्वत है, मानों बर्फ से आहत कमलों वाला सरोवर है, मानों वह मदिरा से खाली प्याला या चांद से रहित अंधेरी रात है
उक्खअदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छि विमुक्कं। पीअमइर व्व चसअंबहुलपओसं व मुद्धचन्दविरहिअं॥
- आ . 2, गा. 11 सेतुबन्ध की 1290 गाथाओं में से 1246 आर्या गीतिछन्द हैं और 44 विविध प्रकार के गलितक छंद हैं । इस काव्य में अनेक छंदों के प्रयोग का आग्रह नहीं है। फिर भी सेतुबन्ध के काव्यत्व में कोई कमी नहीं है। यह ग्रन्थ सांस्कृतिक
और नैतिक आदर्शों की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण प्राकृत महाकाव्य है। आत्म निर्भरता, आत्मसंयम, पुरुषार्थ, वीरता, और मैत्री -निर्वाह का यह आदर्श काव्य है।
. सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह महाकाव्य महत्त्वपूर्ण है। मंगलाचरण की प्रारम्भिक गाथाओं में अवतारवाद का पूर्ण विकास परिलक्षित होता है। यक्ष एवं नाग संस्कृति का भी इसमें वर्णन हुआ है। मैत्री-निर्वाह, कर्त्तव्य-पालन आदि सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना कर कवि ने व्यक्ति के नैतिक जीवन को भी उठाने का प्रयास किया है। काव्यात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से भी यह सर्वश्रेष्ठ
प्राकृत रत्नाकर 0 375