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भी केवल प्रवरसेन का नाम कर्ता के रूप में उल्लिखित है। बाणभट्ट और क्षेमेन्द्र ने भी सेतुबन्ध के कर्ता के रूप में प्रवरसेन का नाम उल्लिखित किया है अपनी कृतियों में। कम्बुज के एक शिलालेख में भी स्पष्ट कहा गया है कि यशोवर्मा (889-909) अपनी प्रवरसेन द्वारा स्थापितधर्म सेतुओं से दूसरे प्रवरसेन को पीछे छोड़गया, क्योंकि उसने केवल एक प्राकृत सेतु (प्राकृत भाषा में सेतुबन्ध महाकाव्य) का निर्माण किया है -
येनप्रवरसेनेन धर्मसेतुं विवृण्वता। पर: प्रवरसेनोउपि जित: प्राकृत सेतुकृत॥
-इन्स्क्रप्संस आफ कंबोज, लेख नं. 33, पृष्ठ 99 सेतुबन्ध महाकाव्य कथोपकथन तथा भाषाशैली में कालिदास के अधिक निकट है। उन्होंने भावनाओं को भी कथोपकथन से प्रस्तुत किया है। हनुमान जब सीता का समाचार लेकर लौटते हैं तो उनका प्रत्येक वचन राम पर अपना प्रभाव छोड़ता है। कवि कहता है कि जब हनुमान ने आकर कहा कि मैंने देखा है तो राम को विश्वास नहीं हुआ, सीता क्षीण शरीर हो गयी है यह सुनकर राम ने गहरी सांस ली। सीता तुम्हारी चिंता करती है यह सुनकर राम रोने लगे और सीता सकुशल जीवित हैं यह सुनकर राम ने हनुमान को गले से लगा लिया। यथा -
दिलृत्तिण सदहिअं झीणं त्ति सबाह-मन्थरं णीससि। सोअइ तुमं त्ति रुण्णं पहुणा जिअइ त्ति माई अवऊढो ॥
सेतुबन्ध में महाकाव्योचित अनेक गुण हैं। किन्तु वे किसी परम्परा पर आधारित नहीं है। कवि ने प्रकृति का वर्णन प्रमुख कथा के प्रसंगों के अनुसार किया है, महाकाव्य की मांग के अनुसार नहीं। कालिदास की भांति उन्होने प्रकृति का मानवीकरण भी नहीं किया। यद्यपि प्रकृति का मानव स्वभाव से सम्बन्ध अवश्य स्थापित किया है। सेतुबन्ध में अलंकार एवं छन्द आदि का काव्यात्मक उपयोग भी हुआ है। यह काव्य वीररस प्रधान काव्य है, अतः श्रृंगार रस का इसमें कम वर्णन है। किन्तु अद्भुत रस और करुणरस की अभिव्यंजना इस काव्य की विशेषता है।
सेतुबन्ध में प्रमुखतः अनुप्रास, यमक और श्लेष जैसे शब्दालंकरों का 3740 प्राकृत रत्नाकर