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________________ मकरकेतु का पुनर्मिलन और विवाह हुआ। पश्चात् संसारसुख भोग दोनों ने दीक्षा ले तपस्या कर मोक्षपद पाया। धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को विवेचित करने वाला यह ग्रन्थ अपने काव्यात्मक वर्णनों के कारण अत्यंत ही सरस एवं सजीव है । प्रेम एवं राग की मार्मिक अभिव्यंजना करने वाली यह गाथा दृष्टव्य है - - तावच्चिय परम- सुहं जाव न रागो मणम्मि उच्छरइ । हंदि ! सरागम्मि मणे दुक्ख सहस्साइं पविसंति ॥ ( गा. 8.80 ) अर्थात् - जब तक मन में राग का उदय नहीं होता है, तब तक परम सुख है, क्योंकि राग युक्त मन में हजारों दुःख प्रवेश कर जाते हैं। - 441. सुसढचरित राजा की आज्ञा भंग करने से इस भव और परभव में अनेक दुःख मिलते हैं। सुसढ़ ने चतुर्थ, षष्ठ-व्रत कर उन दुःखों को पार कर लिया। महानिशीथ की अन्तिम चूला में सुसढ का चरित वर्णित है। उसको लेकर देवेन्द्रसूरि ने प्राकृत गाथाओं में इसकी रचना की है। इसकी हस्तलिखित प्रतियों में 487 से लकर 420 प्राकृत -गाथाएँ मिलती हैं। 442. सूत्रकृतांग (सूयगडो ) अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में सूत्रकृतांग दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त एक दार्शनिक ग्रन्थ है। सूत्रकृतांग के सूतगड, सुत्तकड एवं सूयगड नाम भी प्रचलित हैं। समवायांग में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए लिखा गया है कि इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष आदि तत्त्वों का विश्लेषण है एवं नवदीक्षितों के लिए बोध वचन हैं । सूत्रकृतांग मुख्य रूप से 180 क्रियावादी, 84 अक्रियावादी, 67 अज्ञानवादी एवं 32 विनयवादी मतों की चर्चा करते हुए उनका निरासन किया गया है तथा अन्य मतों का परित्याग कर शुद्ध श्रमणाचार का पालन करने का संदेश दिया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययनों में स्वसमय, परसमय, परीषहजय, कषायजय, नरकों के दुःख, महावीर की स्तुति, परिग्रह त्याग, उत्तम साधु के प्राकृत रत्नाकर 0 371
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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