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________________ मानसिक स्थिति का चित्रण वातावरण की सुन्दर पुष्टि चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विकास, रागद्वेष रूपी एवं वृत्तियों के मूल संघर्ष एवं चरित के विभिन्न रूपों का उद्घाटन इस चरित काव्य के प्रमुख गुण है । कवि ने इस काव्य में जीवन के विविध पहलुओं के चित्रण के साथ प्रेम विराग और पारस्परिक सहयोग का पूर्णतया विश्लेषण किया है। लेखक ने धार्मिक भावना के साथ जीवन की मूल वृत्ति काम वासना का भी विश्लेषण किया । चरितों के मनोवैज्ञानिक विकास, प्रवृत्तियों के मार्मिक उद्घाटन एवं विभिन्न मानवीय व्यापारों के निरूपण में कवि को पूर्ण सफलता मिली है । वस्तुवर्णनों में भीषण अटवी, मदनमहोत्सव, वर्षाऋतु वसन्त सूर्योदय, सूर्यास्त, पुत्रजन्मोत्सव, विवाह, युद्ध, समुद्रयात्रा, धर्मसभाएँ, नायिकाओं के रूप सौन्दर्य, उद्यान क्रीड़ा आदि का समावेश है। वर्णनों को सरस बनाने के लिए लाटानुप्रास, यमक, श्लेष उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, रूपक आदि का उचित प्रयोग किया है। विरहावस्था के कारण विस्तरे पर करवट बदलते हुए और दीर्घ निःश्वास छोड़कर सन्तप्त हुए पुरुष की उपमा भाड़ में भुने चनों के साथ दी हैं कवि कहता है भट्ठियचणगो वि य सयणीये कीस तडफडसि ॥ 3 ॥148 ॥ रसनिष्पत्ति की दृष्टि से यह काव्य उत्कृष्ट है। विविध रसों का समावेश होने पर भी शान्तरस का निर्मल स्वच्छ प्रवाह अपना पृथक अस्तित्व व्यक्त कर रहा है। सुरसुन्दरी सन्यास ग्रहण कर घोर तपश्चरण करती । कषाय और इन्द्रियनिग्रह की क्षमता उसमें अपूर्ण शान्ति का संचार करती है । शत्रुन्जय और नरवाहन युद्ध के प्रसंग में वीर रस के साथ बीभत्स एवं भयानक रस का भी सुन्दर चित्रण हुआ है। प्राकृत भाषा में निबद्ध यह कथा राजकुमार मकरकेतु और सुरसुन्दरी का एक प्रेमाख्यान है। सुरसुन्दरी कुशलाग्रपुर के राजा नरवाहनदत्त की पुत्री थी । वह नाना विद्याओं में निष्णात थी । चित्र देखने से उसे हस्तिनापुर के मकरकेतु नामक राजकुमार से आसक्ति हो गई थी। उसकी सखी प्रियंवदा मकरकेतु की तलाश में निकलती है। बड़ी कठिनाईयों और नाना घटनाओं के पश्चात् सुरसुन्दरी और 370 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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