________________
लक्षण, माहण, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रथ शब्दों की व्युत्पत्ति भली प्रकार से व्याख्या कर उदाहरणों एवं रूपकों द्वारा समझाई गई है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 7 अध्ययन हैं, जिनमें परमतों के खण्डन के साथ-साथ श्रमणों के आचार का प्रतिपादन हुआ है। जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वर कर्तत्व, नियतिवाद, आहार दोष, भिक्षादोष आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है । अन्तिम अध्ययन 'नालन्दीय' में नालन्दा में हुए गौतम गणधर और पार्श्वनाथ के शिष्य पेढ़ालपुत्र का मधुर संभाषण वर्णित है। इसमें पेढ़ालपुत्र गौतम गणधर से प्रतिबोध पाकर चातुर्याम धर्म को छोड़कर भगवान् महावीर के पास पंच महाव्रत रूप धर्म को अंगीकार करता है। उस युग की जो दार्शनिक दृष्टियाँ थीं, उनकी जानकारी तो इस आगम से मिलती ही है साथ ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी प्राकृत साहित्य की अनुपम रचना है ।
443. सूर्य प्रज्ञप्ति / चन्द्र प्रज्ञप्ति
अर्धमागधी आगम साहित्य का सूर्यप्रज्ञप्ति को भी कहीं पाँचवां, कहीं छठवाँ एवं कहीं सातवाँ ग्रन्थ उपांग माना है। इसमें 20 पाहुड, 108 गद्य सूत्र तथा 103 पद्य गाथाएँ हैं। प्रसंगवश द्वीप एवं सागरों का निरूपण हुआ है। प्राचीन ज्योतिष सम्बन्धी मूल मान्यताएँ भी इसमें संकलित हैं । इसे ज्योतिष, भूगोल, गणित एवं खगोल विज्ञान का महत्त्वपूर्ण कोश कह सकते हैं।
इस उपांग में 20 पाहुड और 108 सूत्र है। इसमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। प्रसंगवश द्वीप और सागरों का निरूपण भी आया है। ब्राह्मण पुराणों की भाँति जैनों ने भी इस लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र स्वीकार किये है। इन असंख्यात द्वीप - समुद्रों के बीच में मेरू पर्वत अवस्थित है। पहले जम्बूद्वीप है, उसके बाद लवणसमुद्र, फिर धारती खंड, कालोद समुद्र, पु करवर द्वीप - इस प्रकार मेरू असंख्यात द्वीप समुद्रों से घिरा है। जम्बूद्वीप के दक्षिणभाग में भारतवर्ष और उत्तरभाग में ऐरावतवर्ष है, तथा मेरू पर्वत के पूर्व और पश्चिम में स्थित विदेह, पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह- इन दो भागों में बँट गया है। सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र मेरुपर्वत के चारों ओर भ्रमण करते है।
372 0 प्राकृत रत्नाकर