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रागद्वेष एवं अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच नाना प्रकार के भावों की व्यन्जनाकी गयी है। मूलकथा के नायक से कहीं ज्यादा अवान्तर कथा के नायकों का चरित विकसित है । चरित्रों के विकास के लिए वातावरण का सृजन भी किया गया है । प्रायः सभी अवान्तर कथाएँ धर्मतत्व के उपदेश के हेतु ही निर्मित हैं।
घटनाओं की बहुलता रहने से वर्णनों की संख्या अत्यल्प है। यद्यपि नगर, गाँव, वन, पर्वत, चैत्य उद्यान, प्रातः सन्ध्या, ऋतु आदि के प्रभावोत्पादक दृश्य वर्णित हैं, तो भी इसमें महाकाव्य के परिपार्श्व का अभाव है। सूक्ति और धर्मनीतियों द्वारा चरित को मर्मस्पर्शी बनाने का आयास किया गया है। मित्र और अमित्र का निरूपण करते हुए कहा है -
भवगिह मज्झम्मि पमायजलणजलियम्मि मोहनिद्दाए । जो जग्गवड़ सो मित्तं वारन्तो सो पुण अमित्तं ॥ -प्रमादरूपी अग्नि द्वारा संसाररूपी घर के प्रज्वलित होने पर जो मोहरूपी निद्रा से सोते हुए पुरुष को जगाता है, वह मित्र है और उसे जगाने से जो रोकता है, वह अमित्र है । तात्पर्य यह है कि जो संसार में आसक्त प्राणी को उद्बुद्ध करता है, वही सच्चा हितैषी है। इस चरितकाव्य की भाषा पर अपभ्रंश का पूरा प्रभाव है । संस्कृत की शब्दावली भी अपनायी गयी है । कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार की कई स्थलों पर सुन्दर योजना की है। वर्णनों की सजीवता ने चरितों को सरस बनाया है । 439.सुमइणाहचरियं
पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ के चरित का वर्णन करनेवाला प्राकृत तथा संस्कृत में यह पहला ग्रन्थ है। इसका प्रमाण 1621 लोक है। इसमें अनेक पौराणिक कथायें दी गयी हैं। इसके लेखक विजयसिंहसूरि के शिष्य सोमप्रभाचार्य हैं जो बृहद्गच्छ के थे। इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ कुमारपालप्रतिबोध प्रकाशित हो चुका है। 440. सुरसुन्दरीचरियं
प्राकृत भाषा में निबद्ध यह राजकुमार मकरकेतु और सुरसुन्दरी का एक प्रेमाख्यान है। इसमें 16 परिच्छेद हैं, प्रत्येक में 250 गाथाएँ हैं और कुल मिलाकर
368 प्राकृत रत्नाकर