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गाथाओं में जिनवल्लभसूरि रचित तथा अन्य सोमप्रभसूरि रचित का उल्लेख मिलता है। 427.संवेगरंगसाला __ संवेगरंगशाला के रचयिता जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनचन्द्र हैं, जिन्होंने वि.सं. 1125 में संवेग भाव का निरूपण करने हेतु इस ग्रन्थ में अनेक कथाओं का गुम्फन किया है। शांत रस प्रधान इस कथा-ग्रन्थ में मुख्य रूप से महासेन राजर्षि का कथानक चलता है। वे संसार त्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण करते हैं । इस कथाग्रन्थ के माध्यम से आराधना, उपासना आदि को सार्वजनीय बनाने का प्रयत्न किया गया है। दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों को इस ग्रन्थ में विशद रूप से विवेचन हुआ है।
जिनचन्द्र ने अपने लघु गुरुबान्धव अभयदेव की अभ्यर्थना से इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. 1125 में की है। नवांगवृत्तिकार अभयदेव सूरि के शिष्य जिनवल्लभ सूरि ने इसका संशोधन किया है। इस कृति में संवेग भाव का प्रतिपादन किया है। इसमें शान्तरस पूर्णतया व्याप्त है। संवेगभाव का निरूपण करने के लिए कृति में अनेक कथाओं का गुम्फन हुआ है। कथानकों के रहने पर भी इस कृति में दार्शनिक तथ्यों की बहुलता है। आचार और धर्म सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन लेखक ने खूब खुलकर किया है। यही कारण है कि इस कृति में कथात्मक पुनरुक्तियों का प्रायः अभाव है। उद्देश्य की दृष्टि से यह कृति पूर्णतया सफल है। लेखक ने सभी कथानकों और पात्रों को एक ही उद्देश्य के डोरे में बाँध दिया है। संवेग की धारा सर्वत्र प्रवाहित दिखलायी पड़ती है। जिस प्रकार मिट्टी के बने कच्चे घड़े जल के छींटे पड़ते ही टूट जाते हैं, उसी प्रकार संवेग के श्रवण से सहृदयों के हृदय द्रवीभूत हो जाते हैं। संवेगरस की प्राप्ति के अभाव में कायक्लेश सहन करना या श्रुताध्ययन करना निरर्थक है। 428. संक्षिप्तसार : (क्रमदीश्वर-)
क्रमदीश्वर का समय लगभग 12वीं-13वीं शताब्दी माना गया है। हेमचन्द्र के बाद के वैयाकरणों में क्रमदीश्वर का प्रमुख स्थान है। उन्होंने 'संक्षिप्तसार' नामक अपने व्याकरण ग्रन्थ को आठ भागों में विभक्त किया है। प्रथम सात
3600 प्राकृत रत्नाकर