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व्याकरण का चतुर्थ पाद विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसके 448 सूत्रों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश प्राकृतों का शब्दानुशासन ग्रन्थकार ने किया है। इस पाद में धात्वादेश की प्रमुखता है। संस्कृत धातुओं पर देशी अपभ्रंश धातुओं का आदेश किया है। यथा- संस्कृत कथ्, प्राकृत -कह को बोल्ल, चव, जंप आदि आदेश। __ मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची काअनुशासन तो प्राचीन वैयाकरणों ने भी संक्षेप में किया था। हैम ने इनको विस्तार से समझाया है। किन्तु इसके साथ ही चूलिका पैशाची की विशेषताएँ भी स्पष्ट की हैं। इस पाद के 329 सूत्र से 448 सूत्र तक उन्होंने अपभ्रंश व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला है। उदाहरणों के लिए जो अपभ्रंश के दोहे दिये हैं, वे अपभ्रंश साहित्य की अमूल्य निधि हैं। आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था।इस भाषा का विशाल साहित्य भी था।अपभ्रंश के भी विभिन्न रूप प्रचलित थे। अतः हेमचन्द्र ने प्राचीन वैयाकरणों के ग्रन्थों का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण में बहुत-सी बातें नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की हैं। - आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण पर तत्त्वप्रकाशिका नामक सुबोध-वृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलग्रन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी हैं इसमें अनेक ग्रन्थों से उदाहरण दिये गये हैं। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको प्रकाशिका भी कहा गया है। यह सं. 1929 में बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृत व्याकरण पर अन्य विद्वानों द्वारा भी टीकाएँ लिखी गई हैं। 426.संतिनाहचरियं
इस ग्रन्थ में गुणसेन के शिष्य और हेमचन्द्राचार्य के गुरु पूर्णतल्लगच्छीय देवचन्द्राचार्य कृत 16वें तीर्थंकर शान्तिनाथ का चरित है। इसका परिमाण ग्रन्थाग्र 12000 है। इसकी रचना सं. 1160 में हुई थी। यह प्राकृत गद्य-पद्यमय है । बीचबीच में अपभ्रंश भाषा भी प्रयुक्त हुई है। इसकी रचना खंभात में की गई थी। इनकी एक अन्य कृति मूलशुद्धिप्रकरणटीका (अपरनाम सषानप्रकरण- टीका) है। शान्तिनाथ पर इस विशाल रचना के अतिरिक्त प्राकृत में एक लघु रचना 33
प्राकृत रत्नाकर 0359