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सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में बन्ध, उदय, सत्ता, प्रकृतिस्थान, ज्ञानावरणीय आदि की उत्तर प्रकृतियाँ और बन्धादि स्थान आठ कर्मों के उदीरणास्थान, गुणस्थान और प्रकृतिकबंध आदि का विवेचन है। 417.सनत्कुमारचरित (सणंकुमारचरिय)
चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार के जीवन पर यह प्राकृत भाषा में बड़ी रचना है। इसका परिमाण 8127 श्लोक प्रमाण है। इस चरित में उक्त नायक के अद्भुत कार्यों के वर्णन-प्रसंग में कहा गया है कि एक बार वह एक घोड़े पर बैठा तो वह भगा कर उसे घने जंगल में ले गया जहाँ उसे अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा परन्तु उन सब पर वह विजय पा गया और उसी बीच उसने अनेक विद्याधर पुत्रियों से परिणय किया। 418.समयसार
आचार्य कुन्दकुन्द की यह प्रसिद्ध रचना है। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो समयसार के प्रारम्भ में आई इस गाथा से स्पष्ट होता है कि कुन्दकुन्द को इस ग्रन्थ का नाम समयपाहुड अभीष्ट था। किन्तु प्रवचनसार, नियमसार आदि ग्रन्थों की परम्परा में इसका नाम समयसार प्रचलित हो गया। समय के दो अर्थ हैं, आत्मा या समस्त पदार्थ । इस दृष्टि से जिसमें आत्मा या सभी पदार्थों का सार वर्णित है, वही समयसार है। समयसार एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। शुद्ध आत्मतत्त्व का विवेचन जिस व्यापकता से इसमें हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। समय की व्याख्या करते हुए ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कहा है कि जब जीव सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र में स्थित हो, तो उसे स्वसमय जानो तथा जब पुद्गल कर्म-प्रदेशों में स्थित हो, तो उसे परसमय जानो।शुद्धात्म तत्त्व का निरूपण करने वाला यह ग्रन्थ 10 अधिकारों में विभक्त है। इन अधिकारों में क्रमशः शुद्ध-अशुद्धनय, जीवअजीव, कर्म-कर्ता, पाप-पुण्य, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष एवं सर्व विशुद्ध ज्ञान का विवेचन हुआ है। 419.समराइच्चकहा
समरादित्यकथा को प्राकृत कथा साहित्य में वही स्थान प्राप्त है, जो कि संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट की कादम्बरी को प्राप्त है। इसके रचयिता आचार्य
प्राकृत रत्नाकर 0353