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415. षडावश्यकसूत्र
आवश्यक अथवा आवस्सग (षडावश्यकसूत्र) में नित्यकर्म के प्रतिपादक छह आवश्यक क्रिया अनुष्ठानों का उल्लेख है, इसलिए इसे आवश्यक कहा गया है। इसमें छह अध्ययन हैं- सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। यहाँ अतरंग मनोवृत्ति पर विशेष जोर दिया गया है, बाह्य अनुष्ठानों पर नही। इस सूत्र पर जितनी व्याख्यायें हैं, उतनी और किसी पर नहीं। इस पर भद्रबाहु की नियुक्ति और भाष्य दोनों साथ छपे हैं। सामायिक अध्ययन से संबंधित नियुक्ति पर जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है। आवश्यक नियुक्ति के साथ यह सूत्र हमें उपलब्ध होता है। इस पर जिनदासगणि महत्तर की चूर्णि है। हरिभद्रसूरि ने शिष्यहिता नाम की संस्कृत टीका लिखी है, जिसकी कहानियाँ प्राकृत में हैं। हरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में उक्त छह प्रकरणों का 35 अध्ययनों में वर्णन किया है, जिसमें अनेक प्राचीन प्राकृत और संस्कृत कथाओं का समावेश है। तिलाकाचार्य ने आवश्यकसूत्र पर लघुवृत्ति लिखी है।
राग-द्वेष रहित समभाव को सामायिक कहते हैं । यह प्रथम आवश्यक है। दूसरे आवश्यक में सात गाथाओं में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है। तीसरे में वदन -स्तवन किया गया है। शिष्य गुरु के पास बैठकर गुरु के चरणों का स्पर्श कर उनसे क्षमा याचना करता है और उनकी सुखसाता के संबंध में प्रश्न करता है। चौथे आवश्यक प्रतिक्रमण का उल्लेख है। प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। पांचवे आवश्यक में वह कायोत्सर्ग-ध्यान के लिए शरीर की निश्चलतामें स्थिर रहना चाहता है। छठे आवश्यक में प्रत्याख्यान-सर्व सावद्य कर्मों से निवृत्ति की आवश्यकता बताई है। इसमें अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है। 416. सडसीई (षडशीति)
सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ के कर्ता के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना संभव नहीं। कुछ लोग चन्द्रर्षिमहत्तर को और कुछ शिवशर्मसूरि को इसका कर्ता मानते हैं। इसकी अनेक गाथा नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसार में मिलती हैं। 352 0 प्राकृत रत्नाकर