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हरिभद्र हैं, जिन्होंने अनेक प्राकृत ग्रन्थों की रचना की है। आचार्य हरिभद्र का समय 8वीं शताब्दी माना गया है। समराइच्चकहा का मूलाधार प्रतिशोध की भावना है। इस कथा-ग्रन्थ में राजकुमार समरादित्य एवं उसके प्रतिद्वंद्वी गिरिसेन के नौ भवों की कथा वर्णित है। कथा का मूल आधार राजकुमार गुणसेन एवं अग्निशर्मा के जीवन की वह घटना है, जहाँ कुरूप अग्निशर्मा राजकुमार गुणसेन की बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से अपमानित एवं दुःखी होकर कठोर तपस्वी बन जाता है। युवा होने पर राजा गुणसेन महातपस्वी अग्निशर्मा की तपस्या से अभिभूत होकर उन्हें तीन बार मासखमण के पारणे के लिए राजमहल में आमन्त्रित करता है, किन्तु परिस्थितियों वश तपस्वी का पारणा नहीं हो पाता है। तब क्रोधित अग्निशर्मा तीव्र घृणा एवं प्रतिशोध की भावना के साथ अगले प्रत्येक भव में राजा गुणसेन से बदला लेने का निदान बांध कर मृत्यु को प्राप्त होता है। यहीं से सदाचारी नायक गुणसेन एवं दुराचारी प्रतिनायक अग्निशर्मा के जीवनसंघर्ष की कथा आरम्भ होती है और नौ भवों तक अनवरत चलती है। प्रत्येक भव में अग्निशर्मा का जीव किसी न किसी रूप में गुणसेन से बदला लेता है। अंत में शुभ-परिणति द्वारा नवें भव में गुणसेन का जीव मोक्ष में जाता है तथा अग्निशर्मा का जीव अशुभ-परिणति के कारण घोर नरक में। वस्तुतः. समराइच्चकहा में प्रतिशोध की भावना विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुई है, जिसे दर्शन की भाषा में शल्य या निदान कहा गया है। इस कथा के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि प्रतिशोध की भावना से बांधा गया निदान का एक छोटा सा बीज किस प्रकार एक विशाल वट-वृक्ष का रूप लेकर अनेक जन्मों तक चलता हुआ मनुष्य के घोर पतन का कारण बन जाता है। निदान के साथ-साथ यह कथा कर्मसिद्धान्त की भी सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत करती है। यथा -
सव्वं पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं। अवराहेसु गुणेसुयनिमित्तमेत्तं परो होई॥... (प्रथम भव)
अर्थात् - सभी व्यक्ति पूर्व में किये गये कर्मों के फल रूपी परिणाम को प्राप्त करते हैं । अपराधों अथवा गुणों में दूसरा व्यक्ति तो निमित्त मात्र होता है।
यद्यपि इस कथा-ग्रन्थ में गुणसेन एवं अग्निशर्मा के नौ भवों की कथा वर्णित
3540 प्राकृत रत्नाकर