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होगा।'शीलांक' तो उपनाम जैसा प्रतीत होता है जो संभवतः उनकी अन्य रचनाओं में भी प्रयुक्त हुआ हो। बृहट्टिप्पनिका में ‘चउप्पन्नमहापुरिसचरियं' का रचनासमय वि.सं. 925 दिया है। ये शीलाचार्य अपने समकालीन शीलाचार्य अपरनाम तत्त्वादित्य से भिन्न हैं। तत्त्वादित्य ने आचारांग तथा सूत्रकृतांग पर वृत्ति लिखी थी। 402. शीलाचार्य (विमलमति)
वी. नि. की 14वीं शताब्दी में प्राकृत भाषा के अनमोल ग्रन्थ चउवन्नमहापुरिसचरियं के रचनाकार आचार्य शीलांक अपरनाम विमलमति तथा शीलाचार्य प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान् एवं महान जिनशासन प्रभावक आचार्य हुए हैं। शीलांकाचार्य नाम के तीन विद्वान् आचार्य भिन्न-भिन्न समय में हुए हैं। उनमें से एक शीलांकाचार्य का महान् कोशकार के रूप में जैन वाङ्गमय में उल्लेख उपलब्ध होता है पर वह कोश वर्तमान में कहीं उपलब्ध नहीं है। दूसरे शीलांकाचार्य वे हैं जिन्होंने वी. नि.सं.1403 में आचारांग-टीका की रचना की। उन्हीं शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग-टीका और जीवसमासवृत्ति की रचनाएँ भी की। इसी नाम के तीसरे विद्वान् आचार्य हैं- शीलाचार्य अथवा आचार्य विमलमति । उन्होंने वि. सं. 925 (वी.नि. 1395) में चउवन्नमहापुरिसचरियं नामक उच्च कोटि के चरित्र ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में रचना की। 403. शुभशीलगणि
___ इस महत्त्वपूर्ण कथासंग्रह कथाकोश (भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति) के रचयिता शुभशीलगणि हैं। इनके गुरु का नाम मुनिसुन्दरगणि था। विक्रम की 15वीं शती में हुए युगप्रभावक आचार्य सोमसुन्दर का विशाल शिष्य-परिवार था जो विद्वान् तथा साहित्यसर्जक था। सोमसुन्दर के पट्टशिष्य सहस्त्रावधानी मुनिसुन्दर थे। उनके अन्य गुरुभाइयों ने अनेक ग्रन्थ लिखे थे। शुभशीलगणि इसी परिवार के साहित्यसर्जक विद्वान् थे। शुभशीलगणि ने इस कथाकोश की रचना वि. सं. 1509 में की थी। ग्रन्थान्त में दी गई प्रशस्ति में रचना-संवत् दिया गया है। इनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं। यथा - विक्रमादित्यचरित्र (वि. सं. 1499), शत्रुजयकल्प कथाकोश (वि. सं. 1518), पंचशतीप्रबंध (वि. सं. 1521), भोजप्रबंध, प्रभावककथा,
प्राकृत रत्नाकर 0 345