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शालिवाहनचरित्र, पुण्यधननृपकथा, पुण्यसारकथा, शुकराजकथा, जावड़कथा, भक्तामरस्तोत्रमाहात्म्य, पंचवर्गसंग्रहनाममाला, उणादिनाममाला और अष्टकर्मविपाक। 404. शौरसेनी प्राकृत भाषा
कुन्दकुन्द आदि आचार्यों के ग्रन्थों में प्रयुक्त शौरसेनी प्राकृत के वैशिष्ट्य को निर्धारण करने के लिए स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करना आवश्यक हो जाता है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अवश्य सिद्धान्त-ग्रन्थों की शौरसेनी प्राकृत के नियमों को सम्मिलित करते हुए कुछ विस्तार से शौरसेनी के नियम दिये हैं। डॉ ए. एम. घाटगे ने अपने एक निबन्ध में शौरसेनी नियमों की विस्तार से चर्चा की है। षट्खण्डागम एवं कषायपाहड आदि ग्रन्थों के सम्पादकों ने भी परम्परागत रूप से ही शौरसेनी के नियमों की संक्षेप में चर्चा की है। पं. हीरालाल शास्त्री ने वसुनन्दिश्रावकाचार के परिशिष्ट में शौरसेनी को स्पष्ट करने का अच्छा प्रयत्न किया है। पं. बालचन्द्र शास्त्री ने " षट्खण्डागमः " एक परिशीलन " में ग्रन्थ की भाषात्मक सामग्री प्रस्तुत की है, जो उपयोगी है। शौरसेनी प्राकृत, महाराष्ट्री, नाटकीय शौरसेनी आदि प्राकृतों से प्राचीन एवं विस्तृत भाषा है।
शौरसेनी प्राकृत का नामकरण उसके प्रचार क्षेत्र के नाम पर हुआ है। वज्रमण्डल, मथुरा के आस पास का प्रदेश शूरसेन कहलाता है। इस शूरसेन क्षेत्र में जिस जनभाषा का प्रचार अधिक था वह भाषा शौरसेनी कहलायी । काशी उस समय प्रमुख नगर था। उसके पूर्व में मगध में प्रचलित भाषा को मागधी और काशी के पश्चिम में प्रचलित भाषा को शौरसेनी कहा गया। पहले यही दो प्राकृत भाषाएँ प्रमुख थीं। वररूचि ने प्राकृत-प्रकाश के 12 वें परिच्छेद में जो भी शौरसेनी प्राकृत की विशेषताएँ गिनायी हैं, वे शौरसेनी के नियम निर्धारण के लिए पर्याप्त नहीं कहीं जा सकती हैं, क्योंकि वररुचि ने जो नियम दिये हैं, वे प्रायः संस्कृत नाटकों की शौरसेनी के वैशिष्ट्य का बोध कराते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि के द्वारा निर्धारित शौरसेनी नियमों का प्रायः प्रयोग किया गया है।
346 0 प्राकृत रत्नाकर