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इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटी होना चाहिये। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कहा यह ग्रन्थ शिवार्य की अपनी शक्ति से रचित मौलिक कृति है। तभी तो वह आगे की गाथा में अपनी छद्मस्थता के कारण आगमविरुद्ध यदि कोई लिखा गया हो तो उसको शुद्ध करने की प्रार्थना करते है। अतः उन्होंने अपनी शक्ति से एक लुप्त कृति को पुनजीवित किया है, यह उनका अभिप्राय हमें प्रतीत होता है। शिवार्य में शिव नाम और आर्य विशेष हो सकता हैं, जैसे आर्य जिननन्दि गणि और आर्य मित्रनन्दि गणि में है। अतः यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ के रचयिता आर्य शिव थे -
धदुमत्थदाय एत्थ दुजं बद्धं होज पवयणविरुद्ध। सोधेतु सुगीत्था पवयणवच्छलदाए दु ॥216 ॥-भगवती आराधना।
शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचार्यों के भक्त हैं। इन्होंने गुरुओं से सूत्र और उसके अर्थ की सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेन आचार्य ने आदि पुराण के प्रारम्भ में शिवकोटि मुनि को नमस्कार किया है। यथा
शीतीभूतं जगतस्य वाचाराध्य चतुष्टयम्। मोक्षमार्ग स पायात्रः शिवकोटि मुनिश्वरः ॥-आदिपुराण
अर्थ- जिनके वचनों से प्रकट हुए चारों आराधना रूप मोक्ष मार्ग की आराधना कर जगत् के जीव सुखी होते हैं वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
जिस रूप में जिनसेन आचार्य ने शिवकोटि मुनीश्वर का स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि भगवती आराधना के कर्ता हैं। अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रूप चार प्रकार की आराधनाओं का विस्तृत वर्णन करने वाले शिवार्य का ही शिवकोटि नाम होना चाहिये।
भगवती आराधना या मूलाराधना के कर्ता शिवार्य ने अपने समय का निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्य ने जिनसेन आचार्य ने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेन का समय 9वीं शताब्दी होने से शिवार्य के समय की सबसे ऊपरी सीमा नवीं शताब्दी मानी जा सकती है। शकटायन के निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु है। शकटायन का काल भी शिवार्य के समय की निचली सीमा
342 0 प्राकृत रत्नाकर