SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होते हैं। इनकी परिशुद्धि से ही चारित्र की शुद्धि होती है। पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह उत्तरगुणान्तर्गत हैं। प्रायश्त्ति करने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं निर्गत और वर्तमान । जो प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हैं वे निर्गत हैं। जो प्रायश्चित्त में विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। 390. व्यवहारसूत्र (ववहारो) व्यवहारसूत्र को अर्धमागधी के आगम ग्रन्थों का नवनीत कहा गया है। श्रमण जीवन के सर्वांगीण अध्ययन एवं अनुशीलन की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अन्य छेदसूत्रों की भाँति इस सूत्र में भी श्रमण जीवन की आचार संहिता का वर्णन हुआ है। इसके रचयिता भद्रबाहु माने गये हैं। बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र को एक दूसरे का पूरक माना गया है। इसके दसवें उद्देशक के तीसरे सूत्र में पाँच व्यवहारों के नाम आए हैं - पंचविहे ववहारे पण्णत्तो तंजहा आगमे सुए आणा धारणा जीए। इन्हीं पाँच व्यवहारों के आधार पर इस सूत्र का नामकरण किया गया है। इसमें दस उद्देशक हैं, जिनमें स्वाध्याय एवं अनध्याय काल की विवेचना, श्रमण-श्रमणियों के बीच आचार-व्यवहार सम्बन्धी तारतम्य, ऊनोदरी-तप, आचार्य एवं उपाध्याय के विहार के नियम, प्रतिकार के लिए आलोचना, प्रायश्चित्त, साध्वियों के निवास, अध्ययन, चर्या, वैयावृत्य आदि श्रमणाचार सम्बन्धी व्यवहारों तथा संघ व्यवस्था के नियमोपनियम आदि का विवेचन है। 391. व्याख्याप्रज्ञाप्ति (वियाहपण्णत्ती ) अर्धमागधी अंग ग्रन्थों में व्याख्याप्रज्ञप्ति का पाँचवां स्थान है। प्रश्नोत्तर शैली में लिखे गये इस आगम ग्रन्थ में गौतम गणधर, अन्य शिष्य वर्ग एवं श्रावक-श्राविका आदि द्वारा जिज्ञासु भाव से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर भगवान् महावीर ने अपने श्रीमुख से दिये हैं। इसी कारण सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से भरे हुए इस ग्रन्थ को विद्वानों द्वारा शास्त्रराज कहकर सम्बोधित किया गया है। नन्दी एवं समवायांग के अनुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति में 36000 प्रश्नों का व्याकरण है, किन्तु वर्तमान समय में इसमें 41 शतक ही हैं, जो 1925 उद्देशकों में विभक्त हैं। प्रश्नों के विवेचन क्रम में तत्त्वज्ञान, ज्ञान-मीमांसा, आचार, अन्य दार्शनिक मत, प्राकृत रत्नाकर 0335 पाहा
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy