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________________ प्रतिपादन के साथ अन्यापदेशिक शैली का भी व्यवहार किया है। यह नीतिकाव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। 388. वैराग्य शतक इस नीतिकाव्य के रचयिता का नाम एवं परिचय अज्ञात है। काव्य पर गुणविनय ने वि.सं. 1646 में संस्कृत वृत्ति लिखी है। जिस प्रति के आधार पर इसका मुद्रण किया गया है वह कार्तिक वदी षष्ठी वि.सं. 1663 की है। इस शतक का नामकरण भर्तृहरि के वैराग्य शतक के अनुकरण पर रखा गया है। इसमें 105 गाथाएँ है और वैराग्य उत्पन्न करने के हेतु शरीर यौवन और धन की अस्थिरता का चित्रण किया गया है। इस संसार के स्वभाव और चरित को देखकर कष्ट होता है क्योंकि जो स्नेह सम्बन्धी पूर्वाह्न में दिखलाई पड़ते हैं वे ही संध्या के समय दिखलाई नहीं पड़ते। अतः संसार की क्षणभंगुरता को जानकर आत्मोत्थान के कार्यों में विलम्ब नहीं करना चाहिए। कवि आत्मोत्थान के लिए प्रमादी व्यक्ति को सावधान करते हुए कवि कहता है कि जो एक क्षण को भी धर्म से रहित होकर व्यतीत करता है वह बहुत बड़ी भूल कर रहा है। इस प्रकार इस नीतिकाव्य में कवि ने वैराग्य की दृष्टि के लिए सांसारिक वस्तुओं की अस्थिरता का चित्रण किया है। काव्यकला की दृष्टि से यह ग्रन्थ अच्छा है। 389. व्यवहारभाष्य यह भाष्य साधुओं के आचार से सम्बन्धित है। इसमें प्रारंभ में पीठिका है। पीठिका के प्रारम्भ में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य का स्वरूप बताया गया है। व्यवहार में दोषों की संभावना को दृष्टि में रखते हुए प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त आदि दृष्टियों से व्याख्यान किया गया है। बीच-बीच में अनेक प्रकार के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। पीठिका के बाद सूत्र-स्पर्षिक नियुक्ति का व्याख्यान प्रारंभ होता है। प्रथम उद्देश्य की व्याख्या में भिक्षु, मास, परिहार, स्थान, प्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है। आधाकर्म आदि से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के लिए विभिन्न प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रायश्चित्त से मूलगुण एवं उत्तरगुण दोनों ही परिशुद्ध 3340 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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