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________________ विवाहकर लौट आता है। रुक्मणी ऋषिदत्ता को एक योगिनी के द्वारा राक्षसी के रूप में कलंकित करती है। उसे फाँसी की भी सजा होती है। पर ऋषिदत्ता अपने शील के प्रभाव से सब विपत्तियों को पार कर जाती है और अपने प्रिय से समागम करती है। इस आकर्षक कथानक को लेकर संस्कृत, प्राकृत में कई कथाकाव्य उपलब्ध होते हैं। इस कथा पर सबसे प्राचीन रचना प्राकृत में है जो परिमाण में 1550 ग्रन्थाग्र है। इसकी रचना नाइलकुल के गुणपाल मुनि ने की है । लेखक की अन्य रचना जम्बूचरियं भी मिलती है। इसिदत्ताचरिय ( ऋषिदत्ताचरित्र) की प्रति सं. 1264 या 1288 की मिलती है। इससे यह उक्त काल के पूर्व की रचना गुणपाल मुनि का समय भी 9 - 10 वीं शताब्दी के बीच अनुमान किया गया है । 358. लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि) सुद्धि नामक ग्रंथ के कर्ता याकिनी - महतरासुनु हरिभद्रसूरि माने जाते हैं । परन्तु यह संदिग्ध मालूम होता है। यह लग्नकुण्डलिका नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृत की कुल 133 गाथाओं में गोचरशुद्धि, प्रतिद्वारदशक, मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योगशुद्धि, सुगणदिन, रजछन्नद्वार, संक्रांति, कर्कयोग, वार, नक्षत्र, अशुभयोग, सुगणार्क्षरद्वार, होरा, नवांश, द्वादशांश, षड्वर्गशुद्वि, उदयास्तशुद्धि इत्यादि विषयों पर चर्चा की गई है । 359. लब्धिसार इसके लेखक आचार्य नेमिचन्द्र हैं। आत्मशुद्धि के लिए पाँच प्रकार लब्धियाँ आवश्यक हैं। इन पाँच लब्धियों में करण लब्धि प्रधान है, इस लब्धि के प्राप्त होने पर मिथ्यात्व से छूटकर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। इन ग्रन्थ में तीन अधिकार हैं- (1) दर्शन - लब्धि ( 2 ) चरित्र लब्धि (3) क्षायिक चारित्र । इन तीनों अधिकारों में आत्मा की शुद्धि रूप लब्धियों को प्राप्त करने की विधि पर प्रकाश डाला है । 360. लीलावईकहा प्राकृत का प्रत्येक महाकाव्य किसी विशिष्ट स्वरूप का परिचायक है । विमलसूरि द्वारा रचित पउमचरियं पौराणिक महाकाव्य है तो प्रवरसेनकृत प्राकृत रत्नाकर 307
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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