SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की मृत्यु और शेष रहने से रोगी का चंगा होना फल जानना चाहिए। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ में आचार्य ने बाह्य और आन्तरिक शकुनों द्वारा आनेवाली मृत्यु का निश्चय किया है । ग्रन्थ का विषय रुचिकर है । इस ग्रंथ में 1. पिंडस्थ, 2. पदस्थ और 3. रूपस्थ- ये तीन प्रकार के रिष्ट बताए गए हैं। जिनमें उंगलियाँ टूटती मालूम पड़े, नेत्र स्तब्ध हो जायें, शरीर विवर्ण बन जाय, नेत्रों से सतत जल बहा करे ऐसी क्रियाएँ पिण्डस्थरिष्ट मानी जाती हैं। जिनमें चन्द्र सूर्य विविध रूपों दिखाई दें, दीपक - शिखा अनेक रूपों में नजर आए, दिन का रात्रि के समान और रात्रि का दिन के समान आभास हो ऐसी क्रियाएँ पदस्थरिष्ट कही गई हैं। जिसमें अपनी खुद की छाया दिखाई न पड़े वह क्रिया रूपस्थरिष्ट मानी गई है। इसके बाद स्वप्न विषयक वर्णन है। स्वप्न के एक देवेन्द्रकथित और दूसरा सहज- ये दो प्रकार माने गये हैं। दुर्गदेव ने मरणकंडिका का प्रमाण देते हुए इस प्रकार कहा है : नहु सुणई सतणुस दीवयगंधं च णेव गिण्हेड । जो जियइ सत्तदिहे इय कअिं मरणकंडीए ॥139 ॥ अर्थात् जो अपने शरीर का शब्द नहीं सुनता और जिसे दीपक की गन्ध नहीं आती वह सात दिन तक जीता है, ऐसा मरणकंडी, में कहा गया है। 3. गोरोचना प्रश्न, प्रश्नारिष्ट के 1. अंगुली प्रश्न, 2. अलक्तक - प्रश्न, 4. प्रश्नाक्षर प्रश्न 5. शकुनप्रश्न, 6. अक्षरप्रश्न, 7. होराप्रश्न और 8. ज्ञानप्रश्न - ये आठ भेद बताते हुए इनका विस्तृत वर्णन किया गया है। 356. रिसभदेवचरियं प्रथम तीर्थंकर पर रिसभदेवचरिय नाम से 323 गाथाओं की एक रचना और मिलती है जिसका दूसरा नाम धर्मोपदेशशतक भी है। इसके रचियता भुवनतुंगसूरि हैं । 357. रिसीदत्ताचरियं (ऋषिदत्ताचरित्र ) इसमें ऋषि अवस्था में हरिषेण प्रीतिमती से उत्पन्न पुत्री ऋषिदत्ता और राजकुमार कनकरथ का कौतुकतापूर्ण चरित्र वर्णित है। कनकरथ एक अन्य राजकुमारी रुक्मणी से विवाह करने जाता है पर मार्ग में एक वन में ऋषिदत्ता से 306 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy