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6. पार्श्वनाथ की परम्परा सम्बन्धी अनेक बातों की जानकारी उपलब्ध है ।
7. मुनि केशी ने जीव की अनिवार्य गति के स्पष्टीकरण के लिए बन्द कमरे के भीतर आवाजाह करने पर भी उसके बाहर निकलने का उदाहरण प्रस्तुत किया है। यही उदाहरण हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा के तीसरे भव में पिंगल और विजयसिंह के वाद-विवाद में भी पाया जाता है। उदाहरण दोनों ही स्थानों में समान रूप से आया है।
8. काव्य और कथाओं के विकास के लिये वार्तालाप और संवादों 41 आदर्श यहाँ प्रस्तुत है। इसी प्रकार के संवाद काव्य का अंग बनते हैं। इस उपांग में अनेक वाद्यों का उल्लेख प्राप्त है
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355. रिट्ठसमुच्चय (दुर्गदेव )
दुर्गदेव ने रिट्ठसमुच्चय को शकुन और शुभाशुभ निमित्तों के संकलन रूप में रचा है । लेखक ने रिट्ठों-रिष्टों के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद . किये हैं। प्रथम श्रेणी में अंगुलियों का टूटना, नेत्रज्योति की हीनता, रसज्ञानकी न्यूनता, नेत्रों से लगातार जल प्रवाह एवं अपनी जिह्वा को न देख सकना आदि को परिगणित किया है। द्वितीय श्रेणी में सूर्य और चन्द्रमा का अनेक रूपों में दर्शन, प्रज्वलित दीपक को शीतल अनुभव करना, चन्द्रमा को त्रिभंगी रूप में देखना, चन्द्रलांछन का दर्शन न होना इत्यादि को लिया है। तृतीय में निजच्छाया, परच्छाया तथा छाया पुरुष का वर्णन है और आगे जाकर छाया का अंगविहीन दर्शन विषयों पर तथा छाया का सछिद्र और टूटे-फूटे रूप में दर्शन पर अनेकों मत दिये हैं ।
इसके अनन्तर ग्रन्थकर्ता ने स्वप्नों का कथन किया है जिन्हें उसने देवेन्द्र कथित तथा सहज इन दो रूपों में विभाजित किया है। अरिष्ठों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति करते हुए प्रश्नारिष्ट के आठ भेद - अंगुलि प्रश्न, अलक्तप्रश्न, गोरोचनाप्रश्न, प्रश्नाक्षरप्रश्न, आलिंगित, दग्ध ज्वलित और शान्त, एवं शकुन प्रश्न बताये हैं। प्रश्नाक्षराष्टिका अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि मन्त्रोच्चारण के अनन्तर पृच्छक से प्रश्न कराके प्रश्नवाक्य के अक्षरों का दूना और मात्राओं को चौगुना कर योगफल में सात से भाग देना चाहिए। यदि शेष कुछ न रहे तो रोगी
प्राकृत रत्नाकर 305