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________________ विणओ भत्तिविहीणो महिलाणंरोयणं विणणेहं। चागो वेरग्गविणा एदेदोवारिया भणिया॥ भक्ति के बिना विनय, स्नेह के बिना महिलाओं का रोदन और वैराग्य के बिना त्याग ये तीनों विडंबनायें हैं । एक उपमा देखिए मक्खी सिलिम्मे पडिओ मुवइ जहा तह परिग्गहे पडिउं। लोही मूढो खवणो कायकिलेसेसुअण्णाणी॥ जैसे श्रेष्म में लिपटी हुई मक्खी तत्काल ही मर जाती है, उसी प्रकार परिग्रह से युक्त लोभी, मूढ़ और अज्ञानी मुनि कायक्लेश का ही भाजन होता है। 350. रयणसेहरीनिवकहा (रत्नशेखरीनृपकथा) ___ जयचन्द्रसूरि के शिष्य जिनहर्षगणि प्राकृत गद्य-पद्यमय इस प्राकृत ग्रंथ के लेखक हैं जो पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में हुए हैं । इस ग्रन्थ की रचना चित्तौड़ में हुई है। जिनहर्षगणि ने वसुपालचरित्र, सम्यक्त्वकौमुदी तथा विंशतिस्थानकचरित्र आदि की भी रचना की है। ये संस्कृत और प्राकृत के बड़े पंडित और अनुभवी विद्धान जान पड़ते हैं। उन्होंने बड़ी सरस और प्रौढ़ शैली में इस कथा की रचना की है। रत्नशेखरीकथा में पर्व और तिथियों का माहात्मय बताया है। गौतम गणधर भगवान महावीर से पर्यों के फल के संबंध में प्रयत्न करते हैं और उसके उत्तर में महावीर राजा रत्नशेखर और रत्नवती की कथा सुनाते हैं। प्राकृत और संस्कृत की यहाँ अनेक सूक्तियाँ दी हुई हैं - जा दव्वे होइ मई, अहवा तरुणीसु रूववन्तीसु। ता जइ जिणवरधम्मे, करयलमज्झट्ठिआ सिद्धी ॥ -जितनी बुद्धि धन में अथवा रूपवती तणियों में होती है, उतनी यदि जिन धर्म के पालन में लगाई जाये तो सिद्धि हाथ में आई हुई समझिये। वर कन्या के संयोग के संबंध में उक्ति है - कत्थवि वरो न कत्रा कत्थवि कन्ना न सुंदरो भत्ता। वरकन्ना संजोगो अणुसरिसो दुल्लहो लोए ॥ -कभी वर अच्छा मिल जाता है, लेकिन कन्या अच्छी नहीं होती, कभी कन्या सुन्दर होती है, लेकिन वर सुन्दर नहीं मिलता, वर और कन्या का एक दूसरे के अनुरूप मिलना इस लोक में दुर्लभ है। प्राकृत रत्नाकर 0301
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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