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उपलब्ध है। मंत्र-तंत्र, विद्या-साधक, कापालिकों के क्रियाकाण्ड आदि का भी उल्लेख है। महाराष्ट्री प्राकृत में रचित इस काव्य में यत्र-तत्र संस्कृत एवं अपभ्रंश के पद्य भी प्राप्त होते हैं। 337.महावीरचरियं(नेमिचन्द्र)
यह भगवान महावीर के जीवन चरित पर नेमिचन्द्रसूरि द्वारा लिखित प्राकृत रचना है जो पद्यबद्ध 3000 ग्रन्थान प्रमाण है। इसमें कुल 2385 पद्य हैं। इसका प्रारंभ महावीर के 26वें भव पूर्व में भगवान् ऋषभ के पौत्र मरीचि के पूर्वजन्म में एक धार्मिक श्रावक की कथा से होता है। उसने एक आचार्य से आत्मशोधन के लिए अहिंसाव्रत धारण कर अपना जीवन सुधारा और आयु के अन्त में भरतचक्रवर्ती का पुत्र मरीचि नाम से हुआ। एक समय भरतचक्रवर्ती ने भगवान् ऋषभ के समवशरण में आगामी महापुरुषों के सम्बन्ध में उनका जीवन परिचय सुनते हुए पूछा- भगवन्, तीर्थंकर कौन कौन होंगें ? क्या हमारे वंश में भी कोई तीर्थकर होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ऋषभ ने बतलाया कि इक्ष्वाकुवंश में मरीचि अन्तिम तीर्थंकर का पद प्राप्त करेगा। भगवान् की इस भविष्यवाणी को अपने सम्बन्ध में सुनकर मरीचि प्रसन्नता से नाचने लगा और अहं भाव से विवेक तथा सम्यक्त्व की उपेक्षा कर तपभ्रष्ट भटकता फिरा।
इस रचना में भगवान् महावीर के 25 पूर्व भवों का वर्णन रोचक पद्धति से हुआ है। भाषा सरल और प्रवाहमय है। भाषा को प्रभावक बनाने के लिए अलंकारों की योजना भी की गई है। इसके रचियता बृहदच्छ के आचार्य नेमिचन्द्रसूरि हैं। इनका समय विक्रम की 12वीं शती माना जाता है। इनकी छोटी बड़ी 5 रचनाएँ मिलती हैं - 1. आख्यानमणिकोश (मूलगाथा 52), 2. आत्म बोधकुलक अथवा धर्मोपदेशकुलक (गाथा 22), 3. उत्तराध्ययनवृत्ति (प्रमाण 12000 लोक),4. रत्नचूड़कथा (प्रमाण 3081 लोक) और, 5. महावीरचरियं (प्रमाण 3000 लोक)। प्रस्तुत रचना उनकी अन्तिम कृति है और इसका रचनाकाल सं. 1141 है। 338. महिपालचरित ( महिवालकहा)
महिवालकहा प्राकृत पद्य में लिखी हुई वीरदेवगणि की रचना है। इसमें 1826 गाथाएँ हैं। किन्तु ग्रन्थ में अध्ययन आदि का विभाजन नहीं है। इस ग्रन्थ
2900 प्राकृत रत्नाकर