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10. दो स्वरों के बीच में आने वाले क ग च ज त द व का प्रायः लोप हो जाता है।
यथा
मुकुलः > मुउले नगरम् > णयरं, शची > सई, प्रजापतिः पयावई, यतिः > जई, मदनः > मयणो,
रिपुः > रिउ, जीवः > जीओ आदि 11. संयुक्त व्यंजानान्त ध्वनियों का समीकरण हो गया है। यथा
चक्र चक्को, लक्ष्म > लच्छी, वृक्षः वच्छो आदि। 12. द्विवचन का लोप हो गया है। 13. हलन्त प्रतिपादिक समाप्त हो गये हैं। 14. षष्ठी का प्रयोग चतुर्थी के स्थान पर और चतुर्थी का प्रयोग षष्ठी के स्थान पर __ होने लगा है। 15. न के स्थान पर प्रायःण का प्रयोग होने लगा है। इत्यादि। 336. महावीरचरियं(गुणचन्द्रगणि) • अन्तिम तीर्थंकर महावीर के जीवन पर प्राकृत रचनाएँ उपलब्ध हैं। उनमें यह सर्वप्रथम है। महावीरचरित. गुणचन्द्रगणि की उत्कृष्ट रचना है। इसका रचना काल वि. सं. 1139 है। गद्य-पद्य मिश्रित इस चरितकाव्य में अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के आदर्श जीवन को सरस एवं काव्यमय शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य-ग्रन्थ में 8 सर्ग हैं। प्रथम चार में नायक के पूर्वभवों का एवं शेष चार में वर्तमान भव का वर्णन है। काव्यकार ने धार्मिक सिद्धान्तों के निरूपण, तत्त्वनिर्णय एवं दर्शन के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने हेतु नायक के जीवन की विभिन्न घटनाओं का विश्लेषण धार्मिक वातावरण में प्रस्तुत किया है। मारीच के भव के कृत्य, वर्धमान की बाल-क्रीड़ाएँ, लेखशाला में प्रदर्शित बुद्धि कौशल, विभिन्न उपसर्ग, गोशालक का आख्यान आदि घटनाओं के वर्णन द्वारा तीर्थकर महावीर के चरित को अनेक उतार-चढ़ाव के साथ विकसित किया गया है। नायक के पूर्व जन्मों की घटनाओं के समावेश के कारण कथानक में सम्पूर्णता परिलक्षित होती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि महाव्रतों के आख्यानों का गुम्फन कर नायक के चरित को सरल, उज्ज्वल एवं निर्मल बनाने का कवि ने पूर्ण प्रयास किया है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस चरितकाव्य में महत्त्वपूर्ण सामग्री
प्राकृत रत्नाकर 0289