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प्रधानता है। किन्तु 12वें परिच्छेद में महाराष्ट्री शब्द का प्रयोग कर उसे सामान्य प्राकृत कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वररुचि के इस 12वें परिच्छेद की रचना के समय महाराष्ट्री शौरसेनी से भिन्न प्राकृत भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। बाद में वैयाकरणों ने उसे ही आधार मानकर अपने ग्रन्थ लिखे हैं। सामान्य नियम- प्राचीन प्राकृत वैयाकरण चंड ने अपने व्याकरण में जिन नियमों की मात्र सूचना दी थी वररुचि ने उन नियमों को स्थिर और समृद्ध किया है। हेमचन्द्र ने सूक्ष्मता से साहित्य और लोक में प्रचलित रूपों के आधार पर अपने नियम प्रस्तुत किये हैं। बाद में वैयाकरणों ने प्राकृत के इन सामान्य नियमों को अपने ग्रन्थों द्वारा प्रचारित
किया है।
1. भारतीय आर्य भाषा के ऋ, ऋ एवं लु का सर्वथा अभाव। 2. ऋ वर्ग के स्थान पर अ, इ, उ और रि का प्रयोग। यथा
नृत्यः > णच्चो तृणः > तिणो, मृषा > मुसा, ऋषिः > रिसि। 3. ऐ और औ के स्थान पर ए, ओ का प्रयोग पाया जाता है। यथा
शैलः > सेलो, कौमुदी > कोमुई आदि। अइ और अउ रूप भी मिलते हैं- . दैवः > दइवे, पौरः > पउरो आदि। 4. प्रायः हस्व स्वर सुरक्षित है। यथा
अक्षि > अक्खि, अग्निः > अग्नि आदि। 5. संयुक्त व्यंजनों के पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर हस्व हो गये हैं। यथा
शान्तः > संतो, शाक्यः > सक्को आदि। 6. सानुनासिक स्वर बदलकर दीर्घ स्वर हो जाते हैं। यथा
सिंह - सीहो आदि। 7. प्राकृत में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता। उसके स्थान पर ए या ओ हो जाता है।
यथा- रामः > रामो, देवः > देवे। 8. पदान्त व्यंजनों क लोप हो जाता है। यथा
पश्चात् > पच्छा, जावत् > जाव 9. श, ष और स के स्थान पर केवल स का प्रयोग। यथा
श्वः > अस्सो, मनुष्यः > माणुसो आदि। 288 0 प्राकृतरत्नाकर