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की प्रशस्ति से इतना ही पता चलता है कि देवभद्रसूरि चन्द्रगच्छ में हुए थे। उनके शिष्य सिद्धसेनसूरि और सिद्धसेनसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि थे। वीरदेवगणि मुनिचन्द्र के शिष्य थे। विषयवस्तु के विवेचन को देखते हुए यह रचना अर्वाचीन मालूम होती है। इस कथा में नवकारमंत्र का प्रभाव, चण्डीपूजा, शासनदेवता की भक्ति, यक्ष और कुलदेवी की पूजा, भूतों की बलि, जिनभवन का निर्माण, केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर देवों द्वारा कुसुम वर्षा, आचार्यों का कनक के कमल पर आसीन होना आदि विषयों का वर्णन किया है। वेश्यासेवन को वर्जित बताया है। सोने चाँदी (सोवनियहट्ठ) और कपड़े की दुकानों (दोसियहठ्ठ) का उल्लेख है। इस कथा का नायक वास्तव में परीकथा का एक राजपुत्र है। इस कथा में परीकथा और पौराणिककथा का अच्छा सम्मिश्रण किया गया है। इस पर प्राकृत -संस्कृत में कई रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। 339.मण्डलपगरण: ___ आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य मुनि विजयकुशल ने प्राकृत भाषा में 99 गाथाओं में मण्डलप्रकरण नामक ग्रन्थ की रचना वि. सं. 1652 में की है। ग्रन्थकार ने स्वयं निर्देश किया है कि आचार्य मुनिचन्द्रसूरि ने मण्डलकुलक रचा है, उसको आधारभूत मानकर जीवाजीवाभिगम की कई गाथाएँ लेकर इस प्रकरण की रचना की गई है। यह कोई नवीन रचना नहीं है। ज्योतिष के खगोल विषयक विचार इसमें प्रदर्शित किये गए हैं। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है। इस की पाण्डुलिपिला.द.भा.संस्कति विद्यामंदिर अहमदाबाद में है। 340. मागधी प्राकृत
मगध प्रदेश की जनबोली को सामन्य तौर पर मागधी प्राकृत कहा गया है। मागधी कुछ समय तक राजभाषा थी। अतः इसका सम्पर्क भारत की कई बोलियों के साथ हुआ। इसीलिए पालि, अर्धमागधी आदि प्राकृतों के विकास में मागधी प्राकृत को मूल माना जाता है। इसमें कई लोक भाषाओं का समावेश था। मागधी प्राकृत की यद्यपि सभी प्राकृतों के स्वरूप-गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है, किन्तु अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएँ प्राप्त नहीं होती हैं। केवल संस्कृत नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं। प्रायः सभी प्राकृत वैयाकरणों ने मागधी के लक्षण और उदाहरणों का उल्लेख किया है।
प्राकृत रत्नाकर 0291