SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप से डूब जाता है। इस ग्रन्थ के दो खण्ड हैं। प्रथम खण्ड के रचयिता संघदासगणि हैं, जिन्होंने 29 लम्भकों की रचना की । द्वितीय खंड के रचयिता धर्मदासगणि हैं, जिन्होंने शेष 71 लम्भकों की रचना कर ग्रन्थ को विस्तार दिया । यह प्राकृत कथा-साहित्य के विकास की दृष्टि से आधारभूत ग्रन्थ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर आगे चलकर अनेक स्वतन्त्र कथा - ग्रन्थ लिखे गये । जम्बुचरियं, अगडदत्तचरियं, समराइच्चकहा आदि का मूल स्रोत यही कथा - ग्रन्थ है । तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के विभिन्न पहलू भी इसमें उजागर हुए हैं। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। जगह-जगह सुभाषितों का प्रयोग हुआ है । यथा - - सव्वं गीयं विलवियं सव्वं नट्टं विडंबियं । , सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥... (मुखाधिकार पृ.105) अर्थात् - सभी गीत विलाप हैं, सभी नृत्य विडम्बनाएँ हैं, सभी आभूषण भार हैं, सभी कामभोग दुःखप्रद हैं। जर्मन विद्वान् आल्सडोर्फ ने वसुदेवहिण्डी की तुलना गुणाढ्य की पैशाची भाषा में लिखी बृहत्कथा से की है । संघदासगणि की इस कृति को वे बृहत्कथा का रूपान्तर मानते हैं। बृहत्कथा में नरवाहनदत्त की कथा दी गई है और इसमें वसुदेव का चरित। गुणाढ्य की उक्त रचना की भाँति इसमें भी शृंगारकथा की मुख्यता है पर अन्तर यह है कि जैनकथा होने से इसमें बीच-बीच में धर्मोपदेश बिखरे पड़े हैं। वसुदेवहिण्डी में एक ओर सदाचारी श्रमण, सार्थवाह एवं व्यवहारपटु व्यक्तियों के चरित अंकित हैं तो दूसरी ओर कपटी तपस्वी, ब्राह्मण, कुट्टनी, व्यभिचारिणी स्त्रियों और हृदयहीन वेश्याओं के कथानकों की शैली सरस एवं सरल है। 327. मध्यकालीन प्राकृत पत्र भट्टारकों द्वारा स्थापित ग्रन्थ भण्डारों में प्राकृत भाषा के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ संरक्षित हुए हैं । प्राकृत व्याकरण, छन्द, कोश आदि के अतिरिक्त लौकिक उपयोग के ग्रन्थों की प्रतियां भी इन ग्रन्थ-भण्डारों में सुरक्षित रखी जाती थीं। आरणीय स्वर्गीय डॉ. कासलीवाल जी ने ऐसे कतिपय प्राकृत के ग्रन्थों की सूचना दी है। जयपुर में स्थित दिगम्बर जैन मंदिर पाण्डेय लूणकरण जी में तो प्राकृत का एक 2820 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy