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316. भगवती आराधना : ( शिवार्य )
शिवकोटि अथवा शिवार्य प्राचीन दिगम्बर आचार्य थे। जिन्होंने भगवती आराधना नामक शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ का नाम आराधना अथवा मूलाराधना भी प्राप्त होता है । शिवार्य को अनेक दिगम्बर आचार्यों ने आदरपूर्वक स्मरण किया है। इससे ज्ञात होता है कि शिवार्य और उनका ग्रन्थ दोनों की अच्छी प्रसिद्धि थी। श्री पंडित नाथूराम प्रेमी शिवार्य को यापनीय संघ का आचार्य स्वीकार करते हैं और उनके गुरु का नाम सर्वगुप्त मानते हैं । किन्तु विद्वानों ने शिवार्य को दिगम्बर आचार्य स्वीकार किया है। विद्वानों ने शिवार्य का समय ईस्वी सन् की दूसरी-तीसरी शताब्दी माना है । इनके ग्रन्थ भगवती आराधना पर 7वीं - 8वीं शताब्दी में अपराजितसूरी द्वारा टीका लिखी जा चुकी थी ।
भगवती आराधना शौरसेनी साहित्य का एक प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का मूल नाम आराधना है। किन्तु इसके प्रति श्रद्धा एवं पूज्य भाव व्यक्त करने की दृष्टि से भगवती विशेषण लगाया गया है। ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार ने आराहणा भगवदी लिखकर आराधना के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है। वर्तमान में यह भगवती आराधना के नाम से ही प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में 2166 गाथाएँ हैं, जो 40 अधिकारों में विभक्त हैं। इन गाथाओं में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र. और सम्यक् तप इन चार आराधनाओं का निरूपण हुआ है। वस्तुतः इन आराधनाओं के माध्यम से मुनिधर्म को ही समझाया गया है । ग्रन्थ के प्रारंभ में ही दूसरी गाथा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधना आदि को आराधना कहा है । यथा - उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया ॥ .. (गा. 2 )
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यद्यपि अन्य जैनागमों में भी सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र एवं तप का विवेचन हुआ है, परन्तु, वहाँ उन्हें आराधना शब्द से अभिव्यक्त नहीं किया गया है। इस ग्रन्थ में मरते समय की आराधना को ही यथार्थ आराधना कहा है । उसी के लिए जीवन भर की आराधना की जाती है। मरते समय विराधना होने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है । अतः जो मरते समय आराधक होता है, उसी की
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