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नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस ग्रन्थ रत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। 314. बृहत्कल्प-लघु भाष्य
यह भाष्य बृहत्कल्प के मूल सूत्रों पर है। इसमें पीठिका के अतिरिक्त छः उद्देश्य हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति की दृष्टि से इस भाष्य का विशेष महत्त्व है। जैन श्रमणों के आचार का सूक्ष्म एवं सतर्क विवेचन इस भाष्य की विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक, अनुयोग, कल्प, व्यवहार आदि पर प्रकाश डाला गया है। स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौन सी अवस्था प्रधान है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भाष्यकार ने स्याद्वादी भाषा में लिखा है कि निष्पादक और निष्पन्न इन दो दृष्टियों से दोनों ही प्रधान हैं। स्थविरकल्प सूत्रार्थग्रहण आदि दृष्टियों से जिनकल्प का निष्पादक है, जबकि जिनकल्प ज्ञानदर्शन चारित्र आदि दृष्टियों से निष्पन्न है। इस प्रकार दोनों ही अवस्थाएँ महत्त्वपूर्ण एवं प्रधान है। बृहत्कल्प लघुभाष्य का जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के इतिहास में भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें भाष्यकार के समय की एवं अन्यकालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली सामग्री की प्रचुरता का दर्शन होता है। जैन साधुओं के लिए तो इसका व्यवहारिक महत्त्व है।
315. बेचरदास (पण्डित) दोशी
पण्डित बेचरदास जोशी जैन आगमों के ज्ञाता एवं प्राकृत साहित्य के प्रचारक विद्वान रहे हैं। आपका जन्म 1889 ई. में वलभीपुर (गुजरात) में हुआ था। आपने न्यायतीर्थ और व्याकरणतीर्थ परीक्षाएं उत्तीर्ण की ।आपने उस जमाने में जैन आगमों के सम्पादन और प्रकाशन के लिए बहुत संघर्ष किया। आपके द्वारा भगवतीसूत्र प्राकृत आगम का प्रकाशन हुआ। पं. सुखलाल संघवी के साथ आपने सन्मतितर्क प्राकृत ग्रन्थ के सम्पादन-प्रकाशन में भी सहयोग किया। अहमदाबाद में एल.डी. आर्टस् कालेज की स्थापना के बाद पं. जोशी उसमें प्राकृत के लेक्चरर बने। बाद में आपने एल.डी. इन्स्टीट्यूट आफ इण्डालॉजी में भी अपनी सेवाएँ दीं। आपने लगभग 30 पुस्तकें लिखी हैं। आपका अक्टूबर 1982 में देहावसान हुआ।
प्राकृत रत्नाकर 0 273