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________________ प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। इसमें छः उद्देशक हैं। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु माने जाते हैं। श्रमण जीवन से सम्बद्ध एवं प्राचीनतम आचार-शास्त्र का ग्रन्थ होने के कारण इसका आगम साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ में साधु-साध्वियों के लिए वर्षावास में विहार, वस्त्र लेने आदि का निषेध किया गया है । निर्ग्रन्थी का एकाकी रहना, पात्र रहित रहना, ग्राम आदि के बाहर आतापना लेना आदि का वर्जन किया है। इसके छठे उद्देशक में अपवादिक सूत्रों का विवेचन है । इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण - श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः उत्सर्ग और अपवाद के कथन द्वारा मुनिधर्म की रक्षा और शुद्धि करना ही इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है । 313. बृहत्कल्पभाष्य बृहत्कल्पभाष्य-लघुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघुभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है । भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है, जिसकी गाथा संख्या 805 है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलनआकलन हुआ है । इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक सार्थवाह में यात्री और सार्थवाह का सुन्दर आंकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करने का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा-हे मानवो, सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है जो जागता है वह सदा धन्य है जागरह नरा णिच्छं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि । सो सुवतण सोधणं, जो जाग्गति सो सया धण्णो ॥ प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के आचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है । उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक, राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है । अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही 272 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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