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________________ व्याख्या करने वाली यह गाथा दृष्टव्य है - जंजेण पावियव्वं सुहं व दुक्खं व कम्मनिम्मवियं। तं सो तहेव पावइ कयस्स नासो जओ नत्थि॥(29.151) अर्थात् - जिस व्यक्ति के द्वारा जिस प्रकार के कर्म निर्मित किये गये हैं, वह उसी प्रकार से सुख और दुःख प्राप्त करता है, क्योंकि किये हुए कर्मो का नाश नहीं होता है। 27. आगम कथाओं की संस्कृति प्राकृत आगम ग्रन्थों में प्राप्त कथाएँ केवल तत्व दर्शन को समझने के लिए ही नहीं, अपितु तत्कालीन समाज और सांस्कृति को जानने के लिए भी महत्वपूर्ण है। यद्यपि आगम ग्रन्थों का कोई एक रचनाकाल निश्चित नहीं है। महावीर के निर्वाण के बाद वलभी में सम्पन्न आगम-वाचना के समय तक इन आगमों का स्वरूप निश्चित हुआ है। अतः ईसा शताब्दी से ईसा की 5वीं शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्षों का जन-जीवन इन आगमों में अंकित हुआ है। आगमों के व्याख्या साहित्य, संस्कृति एवं राजनीति आदि की सामग्री का महत्व इसलिए और अधिक है कि इस युग के अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य कम उपलब्ध हैं। अतः इन्हीं साहित्यिक . साक्ष्यों पर निर्भर होना पड़ता है। जैन मुनियों द्वारा लिखे गये अथवा संकलित किये गये इन आगम ग्रन्थों में अतिशयोक्तियां होते हुए भी यथार्थ-चित्रण अधिक है, जो सांस्कृतिक मूल्यांकन के लिए आवश्यक होता है। इन आगमिक कथाओं में प्राप्त सांस्कृतिक सामग्री के मूल्यांकन के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है तथा समकालीन अन्य परम्परा के साहित्य की जानकारी रखना भी जरूरी है। 28. आगम कथाओं की भाषात्मक दृष्टि महावीर के उपदेशों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है अतः उनके उपदेश जिन आगमों में संकलित हुए हैं उनकी भाषा भी अर्धमागधी प्राकृत है। किन्तु इस भाषा में महावीर के समय की ही अर्धमागधी भाषा का स्वरूप सुरक्षित नहीं है, अपितु ईसा की 5 वीं शताब्दी तक प्रचलित रहने वाली सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री के रूप भी इसमें मिल जाते हैं। कुछ आगम ग्रन्थों में अर्धमागधी में 200 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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