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मधुपिंग, वशिष्ठ मुनि, द्वीपायन, शिवकुमार, भव्यसेन और शिवभूति के उदाहरण दिये हैं। आत्महित को यहाँ मुख्य बाताया है
उत्थरइ जाण बरओ रोयग्गी जाण डहइ देहउडि। इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥
जब तक जराअवस्था आक्रान्त नहीं करती, रोग रूपी अग्नि देह रूप कुटिया को नहीं जला देती और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हो जाती, तब तक आत्महित करते रहना चाहिए। योगी के सम्बन्ध में मोक्खपाहुड में कहा है
जे सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सक जम्मि। जे जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कजे॥
जो योगी व्यवहार में सोता है वह स्वकार्य में जागृत रहता है, जो व्यवहार में जाग्रत रहता है वह स्वकार्य में सोता है। लिंगपाहुड में 22 और सीलपाहुड में 40 गाथायें हैं। सीलपाहुड में दशपूर्वी सात्यकिपुत्र का दृष्टान्त दिया गया है। 26. आख्यानमणिकोश (अक्खाणमणिकोसो)
उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने धर्म के विभिन्न अंगों को उपदिष्ट करने हेतु आख्यानमणिकोश में अनेक लघु कथाओं का संकलन किया है। प्राकृत कथाओं का यह कोश ग्रन्थ है। मूल गाथाएँ 52 हैं, जो आर्याछंद में हैं। आम्रदेवसूरि ने इस पर ई. सन् 1134 में टीका लिखी है। मूल एवं टीका दोनों प्राकृत में हैं। कहीं-कहीं संस्कृत एवं अपभ्रंश का भी प्रयोग है। टीका ग्रन्थ में 41 अधिकार हैं, जो 146 आख्यानों में विभक्त हैं।
विषय विविधता की दृष्टि से इस कोश की कथाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन आख्यानों में धर्मतत्त्वों के साथ-साथ लोकतत्त्व भी विद्यमान हैं। इन कथाओं के माध्यम से जीवन एवं जगत से सम्बन्धित सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। धार्मिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक नियमों की अभिव्यंजना विभिन्न कथानकों के माध्यम से की गई है। यथा - शील की महत्ता के लिए सीता, रोहिणी, सुभद्रा, दमयंती के आख्यान वर्णित हैं । सुलसा आख्यान द्वारा श्रद्धा का महत्त्व प्रतिपादित किया है। इसी प्रकार तप, जिनपूजा, विशुद्ध भावना, कर्मसिद्धान्त आदि के माहात्म्य का विवेचन भी विभिन्न आख्यानों द्वारा किया गया है। कर्म सिद्धान्त की दार्शनिक
प्राकृत रत्नाकर 019