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________________ 297. प्राकृत साहित्य और लोक भाषा समस्त प्राकृत साहित्य की भाषा लोकभाषा है । लोकजीवन की जब बात कहनी है तो उसी भाषा में कहना उपयुक्त होगा जिसे जन मानस हृदयंगम कर सके। प्राकृत कथाकारों ने देशी भाषा को विशेष महत्त्व दिया है। कुवलयमालाकहा पढ़ने का अधिकारी उसको समझा गया है जो देशी भाषा का अच्छा जानकार हो । यही कारण है कि इस ग्रन्थ में जैसे पात्रों की रचना है, वैसी ही उनकी भाषा । विभिन्न देशों के व्यापारी अपनी-अपनी लोक भाषाओं में बात करते हैं। अन्य प्राकृत ग्रन्थों में भी अनेक ऐसे लोक शब्द मिलते हैं जो आज भी प्रान्तीय जन भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं । इस प्रकार प्राकृत साहित्य में लोक साहित्य के उपयुक्त तत्त्व - धर्मगाथा, लोककथा, लोकोक्तियाँ, लोकभाषा आदि प्राप्त होते हैं। इनके अतिरिक्त लोक संस्कृति के विभिन्न अंगों का समावेश भी इससे हुआ है । सम्पूर्ण प्राकृत साहित्य विभिन्न युगों के लोक जीवन का प्रतिबिम्ब उपस्थित करता है । 298. प्राकृत साहित्य में पारिवारिक जीवन प्राकृत साहित्य में प्रायः संयुक्त परिवारों का चित्रण प्राप्त होता है, जो लोकजीवन में प्रमुख रहा है। परिवार के सभी लोग एक ही स्थान पर रहते, एक ही जगह पकाया हुआ भोजन करते तथा सर्व सामान्य जमीन-जायदाद का उपभोग करते। स्त्रियाँ छरने - पछारने, पीसने - कूटने, रसोई बनाने, पानी भरने और बर्तन मांजने का काम करती थीं। मिलकर भी रहती और लड़ती झगड़ती भी। इन सबके विवरण प्राकृत की लोकथाओं में हैं। आदर्श गांव की गृहणी का एक चित्र दृष्टव्य है भुंजइ भुंजियसेसं सुप्पर सुप्पम्मि परियणे सयले । पढमं चेय विबुज्झइ घरस्स लच्छी न सा घरिणी ॥ जो बाकी बचा हुआ भोजन करती है, सब परिजनों के सो जाने पर स्वयं सोती है, सबसे पहले उठती है, वह गृहणी ही नहीं, घर की लक्ष्मी है। परिवार की प्रतिष्ठा और पाहुने सत्कार के प्रति उसका कर्त्तव्य देखिए- किसी प्रिय पाहुने के 260 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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