SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निम्नांकित लोककथा के तत्त्व उपलब्ध हैं-1. लोकमंगल की भावना 2. धर्म श्रद्धा 3. कुतूहल 4. अमानवीय तत्त्व 5. मनोरंजन 6. अप्राकृतिकता 7. अंतिप्राकृतिकता 8. अन्धविश्वास 9. अनुश्रुत मूलकथा 10. हास्य विनोद 11. साहस का निरूपण 12.जनभाषा 13. मिलन-बाधाएँ 14. प्रेम के विभिन्न रूप 15. उपदेशात्मकता इत्यादि। लोककथा का प्रधान तत्त्व कथानकरूढि है। कथानकरूढि के आदि स्त्रोत के रूप में लोक प्रचलित अनेक संस्कार विश्वास एवं आचारों को स्वीकार किया जा सकता है। प्राकृत कथाओं में अनेक कथारूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। यथा-(1) लोक प्रचलित विश्वासों से सम्बद्ध (2) अमानवीय शक्तियों से सम्बद्ध (3)अतिमानवी प्राणियों से सम्बद्ध (4) काल्पनिक रूढियाँ (5) सामाजिकता की द्योतक रूढियां (6) मन्त्र-तन्त्र सम्बन्धी (7) पशु-पक्षी सम्बन्धी तथा (8)आध्यात्मिक अभिप्राय आदि। ये रूढियाँ भारतीय साहित्य में हर जगह मिल जायेंगी, किन्तु प्राकृत कथाओं की विशेषता यह है कि उन्होंने लोक जीवन में से अनेक ऐसी कथानक-रूढ़ियों का निर्माण किया है, जिनका अब तक साहित्य में प्रयोग नहीं हुआ था। अतः अभिजात साहित्य तक लोक संस्कृति को पहुँचाने में प्राकृत-कथा साहित्य द्वारा किया गया प्रयत्न सर्वप्रथम है। अपभ्रंश कथाओं ने प्राकृत साहित्य की अनेक लोककथाओं को नया रूप प्रदान किया गया है। भविसयत्तकहा का सांस्कृतिक अध्ययन डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने प्रस्तुत किया है, जिसमें अपभ्रंश साहित्य में प्रयुक्त लोक तत्त्वों का भी विवेचन किया गया है। प्राकृत एवं अपभ्रंश लोककथाओं का अन्य भारतीय लोककथाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। डॉ. सत्येन्द्र ने कुछ कथाओं की लोकयात्रा का विवेचन प्रस्तुत कर इस क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त किया है। लोक साहित्य में लोकोक्तियों, पहेलियों, मुहावरों आदि का विशेष महत्त्व है, इनके द्वारा लोकचिन्तन धारा का प्रतिनिधित्व होता है। प्राकृत साहित्य में इनकी भरमार है। उदाहरण स्वरूप कुछ दृष्टव्य है1.मरइ गुडेण चियं तस्स विसं दिजजए किंव। --जो गुड़ देने से मर सकता है उसे विष देने की क्या आवश्यकता है। 258 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy