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प्राकृत कथाओं में लोकतत्त्वों का समावेश क्रमशः हुआ है । आगमकालीन कथाएँ यद्यपि बीज रूपा हैं विकसित नहीं। फिर भी उनके कथा - बीजों में लोकतत्त्वों का पुट है । ज्ञाताधर्मकथा की धरणी का दोहद, विजयचोर, सागरदत्त और वेश्या, धन्ना सेठ और उसकी पतोहू आदि कथाएँ लोककथाओं का पूरा प्रतिनिधित्व करती है। महारानी धारिणी देवी ने अपने दोहद में असमय में ही वर्षाकालीन दृश्य देखने की इच्छा प्रगट की थी, जो कथा के अन्त में पूरी की गई । कथा का यह स्वरूप लोककथा शैली का है। प्रारम्भ में अनहोनी जैसी बात को समस्या के रूप में रखकर पाठक में कौतुहल उत्पन्न किया गया है और बाद में उसकी पूर्ति की गई है । टीकायुगीन कथाओं में नीतिकथा और लोककथा के तत्त्व अधिक मिलने लगते हैं, इन कथाओं की नीति उन्मुखता पूर्णतः व्यापक जीवन के संदर्भ में घटित होती है, इसलिए वह सार्वभौमिक और साधारण जन आस्वाद्य है ।
स्वतन्त्र प्राकृत कथा ग्रन्थों में लौकिक तत्त्व प्रचुर मात्रा में समाविष्ट हैं, इनमें अनेक लोककथाएँ स्वतन्त्र रूप से निर्मित की गई हैं। वसुदेवहिण्डी विशुद्ध लोककथा ग्रन्थ है । इसकी लोक कथाएँ मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी करती हैं। इसके शीलमती, धनश्री, विमलसेना, ग्रामीण गाड़ीवान वसुदत्ताख्यान रिपुदमन आदि आख्यान सुन्दर लोक कथानक हैं । इनमें लोक कथाओं के सभी गुण और तत्त्व विद्यमान हैं ।
प्राकृत कथा साहित्य की सम्पन्नता का युग 8-9वीं सदी है, इस समय कथानक शिल्प और भाषा इन तीनों का पर्याप्त विकास हुआ है। मूल कथा के साथ अवान्तर कथाओं का कलात्मक संश्लेष इस युग की पहली चेतना है । अतः स्वाभाविक रूप से लोक प्रचलित अनेक कथाएँ एवं कथातत्त्व प्राकृत व अपभ्रंशं कथाओं में समाहित हुए हैं । हरिभद्रसूरि की समराइ च्चकहा और उद्योतनसूरि की कुवलयमाला कहा में लोककथा के पर्याप्त गुण धर्म विद्यमान हैं। लोकभाषा में लोक परम्परा से प्राप्त कथानक सूत्रों को संघटित कर लोक मानस को आन्दोलित करनेवाली लोकानुरंजक कथाएँ लिखकर इन प्राकृत कथाकारों ने लोककथा के क्षेत्र में अनुपम योगदान दिया है। विश्लेषण करने पर इन प्राकृत कथाकृतियों में
प्राकृत रत्नाकर 0257