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________________ कहा गया है। उत्तराध्ययन में ब्राह्मणों के यज्ञों का भी उल्लेख है, जिन्हें आध्यात्मिक यज्ञों में बदलने की बात इन जैन कथाकारों ने कही है। क्षत्रियों के लिए खत्तिय शब्द का यहाँ प्रयोग हुआ है। इन कथाओं में क्षत्रिय राजकुमारों की शिक्षा एवं दीक्षा का भी वर्णन है। वैश्यों के लिए इभ्य, श्रेष्ठी, कोटुम्बिक, गाहावई आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। हरिकेशं चांडाल एवं चित्त-सम्मभूत मातंगों की कथा के माध्यम से एक ओर जहाँ उनके विद्या पारंगत एवं धार्मिक होने की सूचना है वहाँ समाज में उनके प्रति अस्पृश्यता का भाव भी स्पष्ट होता है। चाण्डालों के कार्यों का वर्णन भी अन्तकृददशा की एक कथा में मिलता है। इन कथाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन पारिवारिक जीवन सुखी था। रोहिणी की कथा संयुक्त परिवार के आदर्श को उपस्थित करती है, जिसमें पिता मुखिया होता था (ज्ञाता 18) अपनी संतान के लिए माता के अटूट प्रेम के कई दृश्य इन कथाओं में हैं। मेघकुमार की दीक्षा की बात सुनकर उनकी माता अचेत हो गई थी। राजा पूर्णनन्दी की कथा से ज्ञात होता है कि वह अपनी माँ का अनन्य भक्त था। चूलनीपिता की कथा में मातृ-वध का विघ्न उपस्थित किया है। उसमें माता भद्रा सार्थवाही के गुणों का वर्णन है।। आगमों की कथाओं में विभिन्न सामाजिक जनों का उल्लेख है। यथा-' तलवारमांडलिक, कोटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, महासार्थवाह, महागोप, सायात्रिक, नौवणिक, सुवर्णकार, चित्रकार, गाहावई, सेवक आदि। गजसुकुमार की कथा से ज्ञात होता है कि परिवार के सदस्यों के नामों में एकरूपता रखी जाती थी। इन कथाओं से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय समाज सेवा के अनेक कार्य किये जाते थे। नंद मणिकार की कथा से स्पष्ट है कि उसने जनता के लिए एक ऐसी प्याऊ (वापी) बनवाई थी,जहाँ छायादार वृक्षों के वनखण्ड, मनोरंजक चित्रासभा, भोजनशाला, चिकित्सा-शाला, अलंकार सभा आदि की व्यवस्था थी। समाज-कल्याण की भावना उस समय विकसित थी। राजा प्रदेशी ने भी श्रावक बनने का निश्चय करके अपनी सम्पत्ति के चार भाग किये थे। उनमें से परिवार के पोषण के अतिरिक्त एक भाग सार्वजनिक हित के कार्यों के लिए था, जिससे दानशाला आदि स्थापित की गई थी। इन कथाओं में पात्रों के अपार वैभव 252 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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