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288. प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली
बिहार सरकार ने 1955 ई. में वैशाली नगर के समीप वासुकुण्ड (भगवान महावीर की जन्मस्थली) में “रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ प्राकृत, जैनालाजी एवं अहिंसा" की स्थापना की थी। इस प्राकृत शोधसंस्थान का प्रमुख उद्देश्य प्राकृत एवं जैनविद्या में अध्ययन एवं शोधकार्य को विकसित करना है। देश में प्राकृत एवं जैनविद्या में एम.ए. और पीएच.डी. स्तर का शिक्षण कार्य इसी शोध संस्थान के द्वारा प्रारम्भ हुआ। बिहार विश्वविद्यालय के एक शोधसंस्थान के रूप में यह इन्स्टीट्यूट संचालित हो रहा है। विगत पचास वर्षों में अनेक पीएच.डी. प्राप्त विद्वान् यहाँ से निकले हैं। महत्त्वपूर्ण प्राकृत ग्रन्थों का यहाँ से प्रकाशन हुआ है। वैशाली इन्स्टीट्यूट रिसर्च बुलेटिन भी इस संस्थान से प्रकाशित हो रहा है। 289. प्राकृत साहित्य का इतिहास
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने सन् 1959 में प्राकृत साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक का लेखन किया, जो चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है। सन् 1985 में इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। इसमें प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण विभिन्न प्राकृतों का स्वरूप, जैन आगम साहित्य का समीक्षात्मक विवेचन, आगमों का व्याख्या साहित्य, दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों का विवरण, कर्मसिद्धान्त एवं दार्शनिक प्राकृत ग्रन्थों का परिचय, प्राकृत कथा साहित्य का मूल्यांकन, प्राकृत चरित साहित्य, प्राकृत काव्य साहित्य का परिचय तथा संस्कृत नाटक ग्रन्थों में प्राकृत आदि विषयों पर सप्रमाण और तुलनात्मक दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। प्राकृत व्याकरण छन्द, कोश, अलंकार, ज्योतिष के ग्रन्थो का परिचय भी इस इतिहास ग्रन्थ में है। प्राकृत के विद्यार्थियों, विद्वानों एवं सम्पादकों के लिए डॉ. जैन का यह ग्रन्थ आधारभूत ग्रन्थ है। 290. प्राकृत साहित्य में सामाजिक जीवन
आगम ग्रन्थों की इन कथाओं में मौर्य-युग एवं पूर्व गुप्तयुग के भारतीय जीवन का चित्रण हुआ है। तब तक चतुर्वर्ण-व्यवस्था व्यापक हो चुकी थी। इन कथाओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के भी कई उल्लेख हैं। ब्राह्मण के लिए माहण शब्द का प्रयोग अधिक हुआ है। महावीर को भी माहण और महामाहण
प्राकृत रत्नाकर 0 251