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त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत व्याकरण में ह, दि, स और ग आदि नयी संज्ञाओं का निरूपण किया है तथा हेमचन्द्र की अपेक्षा देशी शब्दों का संकलन अधिक किया है। हेमचन्द्र ने एक ही सूत्र में देशी शब्दों की बात कही थी, क्योंकि उन्होंने 'देशीनाममाला' अलग से लिखी है। जबकि त्रिविक्रम ने 4 सूत्रों में देशी शब्दों का नियमन किया है। प्राकृत शब्दानुशासन में अनेकार्थ शब्द भी दिये गये हैं। यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है। त्रिविक्रम के इस ग्रन्थ पर स्वयं लेखक की वृत्ति के अतिरिक्त अन्य दो टीकाएं भी लिखी गई हैं। लक्ष्मीधर की 'षड्भाषाचन्द्रिका' एवं सिंहराज का 'प्राकृत रूपावतार' त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सुबोध बनाते हैं। 285. प्राकृत शिलालेख
__ प्राकृत भाषा एवं साहित्य के अध्ययन के लिए शिलालेखी साहित्य की जानकारी महत्त्वपूर्ण है। लिखित रूप में प्राकृत भाषा का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य शिलालेखी साहित्य के रूप में ही उपलब्ध है। यह साहित्य कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जितना भी शिलालेखी साहित्य आज उपलब्ध है, उसमें प्राकृत के शिलालेख सर्वाधिक प्राचीन हैं। प्राकृत के शिलालेखों की महत्ता इस बात से भी बढ़ जाती है कि यह साहित्य किसी व्यक्ति विशेष, राजा, महात्मा या योद्धा के यशोगान या स्तुति से सम्बन्धित नहीं है, अपितु इन शिलालेखों द्वारा मानवता के प्रकाश में जीवन मूल्यों की सुन्दर प्रतिष्ठा की गई है। प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण ये शिलालेख सामाजिक प्रगति, धार्मिक सहिष्णुता एवं शान्ति का ही संदेश देते हैं। प्राकृत साहित्य एवं प्राकृत भाषा के प्राचीनतम रूप के अध्ययन की दृष्टि से भी यह साहित्य प्रामाणिक है, क्योंकि शिलापट्टों पर उत्कीर्ण होने के कारण इस साहित्य में किसी प्रकार के परिवर्तन एवं संशोधन की संभावना नहीं होती है। यह समय के शाश्वत प्रवाह में यथावत स्थिर है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह हमारी अमूल्य धरोहर है। शिलालेखी साहित्य में अशोक के शिलालेख प्राचीनतम हैं। उसके पश्चात् ईसा की पहली शताब्दी में लिखा खारवेल का हाथीगुम्फा लेख, उदयगिरि-खण्डगिरि के लेख, आन्ध्र राजाओं के प्राकृत शिलालेख, नासिक में
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