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________________ अपेक्षा व्याकरणात्मक अनुवाद को आत्मसात किया जा सकेगा तथा प्राकृत ग्रन्थों का सही-सही अर्थ समझा जा सकेगा। वस्तुतः डॉ. सोगाणी की इन पुस्तकों ने न केवल प्राकृत भाषा के अध्ययन को एक नई सारगर्भित दिशा प्रदान की है, अपितु इस धारणा को प्रतिष्ठापित किया है कि संस्कृत भाषा में निपुणता प्राप्त किये बिना भी प्राकृत भाषा का अध्ययन स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है। 284. प्राकृतशब्दानुशासन : त्रिविक्रम त्रिविक्रम 13वीं शताब्दी के वैयाकरण थे। उन्होंने जैन शास्त्रों का अध्ययन किया था तथा कवि भी थे। यद्यपि उनका कोई काव्यग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं है। त्रिविक्रम ने प्राकृत शब्दानुशासन' में प्राकृत सूत्रों का निर्माण किया है तथा स्वयं उनकी वृत्ति भी लिखी है प्राकृत पदार्थसार्थप्राप्त्यै निजसूत्रमार्गमनुजिगमिषताम्। वृत्तिर्यथार्थ सिद्धयै त्रिविक्रममेणागमक्रमात्क्रियते ॥१॥ इन दोनों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन एवं प्रकाशन डॉ. पी. एल. वैद्य ने सोलापुर से 1954 में किया है। यद्यपि इससे पूर्व भी मूलग्रन्थ का कुछ अंश 1896 एवं 1912 में प्रकाशित हुआ था। किन्तु यह ग्रन्थ को पूरी तरह प्रकाश में नहीं लाता था। अतः वैद्य ने कई पाण्डुलिपियों के आधार पर ग्रन्थ का वैज्ञानिक संस्करण प्रकाशित किया है। इसके पूर्व वि. स. 2007 में जगन्नाथ शास्त्री होशिंग ने भी मूलग्रन्थ और स्वोपज्ञवत्ति को प्रकाशित किया था। इसमें भूमिका संक्षिप्त है, किन्तु परिशिष्ट में अच्छी सामग्री दी गई है। __प्राकृत शब्दानुशासन में कुल तीन अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में 4-4 पाद हैं। पूरे ग्रन्थ में कुल 1036 सूत्र हैं । यद्यपि त्रिविक्रम ने इस ग्रन्थ के निर्माण में हेमचन्द्र का ही अनुकरण किया है, किन्तु कई बातों में नयी उद्भावनाएं भी हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में प्राकृत का विवेचन है। तीसरे अध्याय के दूसरे पाद में शौरसेनी (1-26), मागधी (27-42), पैशाची (4363) तथा चूलिका पैशाची (64-67) का अनुशासन किया गया है। ग्रन्थ के इस तीसरे अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पादों में अपभ्रंश का विवेचन है। प्राकृत रत्नाकर 0247
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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