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________________ गया है। होर्नले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थ पाद भी मिलता है, जिसमें केवल 4 सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है- 1-अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, 2- पैशाची में र् और स् के स्थान पर ल् और न् का आदेश होता है, 3-मागधी में र् और स् के स्थान पर ल और ष् का आदेश होता है तथा 4-शौरसेनी में त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार, रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचन्द्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है। 282. प्राकृत में विभक्ति एवं कारक संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं में विभक्ति प्रत्ययों का प्रयोग आवश्यक है। विभक्ति से ही पता चलता है कि शब्द की संख्या क्या है, उसका कारक क्या है। प्राकृत में छह कारक एवं छह विभक्तियाँ होती हैं। चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति को एक मानने से सात के स्थान पर छह विभक्तियों के प्रत्यय ही प्रयुक्त होते हैं, जबकि अर्थ सात विभक्तियों के ग्रहण किये जाते हैं। क्रिया का जो उत्पादक हो, क्रिया से जिसका सम्बन्ध हो अथवा क्रिया की उत्पत्ति में जो सहायक हो उसे कारक कहा गया है। प्राकृत में प्रयोग के अनुसार कारक और विभक्तियों के क्रम बदलते रहते हैं। फिर भी सामान्यतया कारक और विभक्ति के सम्बन्ध इस प्रकार हैंकारक विभक्ति चिन्ह 1- कर्ता प्रथमा है, ने 2- कर्म द्वितिया को, (को रहित भी) 3- साधन (अकरण) तृतीया से, के द्वारा आदि 4- सम्प्रदान चतुर्थी के लिए 5- उपादान पंचमी से (विलग होने में) 6- सम्बन्ध षष्ठी का, के, की 2400 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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