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मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषायें अनके रूपों में पाई जाती हैं। ये भाषायें श्वेताम्बर जैन आगमों की प्राकृत, दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों की शौरसेनी प्राकृत, जैनों की धार्मिक और लौकिक कथाओं की प्राकृत, संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त विविध रूप वाली प्राकृत, मुक्तक काव्यों की महाराष्ट्री प्राकृत, वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत, अशोकी शिलालेखों की प्राकृत, निया प्राकृत, खरोष्ठी लिपि में उल्लिखित धम्मपद की प्राकृत आदि के रूप में बिखरी हुई पड़ी हैं। इन सब को सामान्यतया प्राकृत की संज्ञा दी जाती हैं, यद्यपि प्राकृत वैयाकरणों ने इनके जुदाजुदा नाम दिये हैं। वैयाकरणों में प्राकृत बोलियों का विस्तृत विवेचन कर्ताओं में वररुचि का नाम सर्वप्रथम आता है। उनके अनुसार प्राकृत जिसे आगे चलकर महाराष्ट्री कहा गया है, पैशाची, मागधी और शौरसेनी ये चार प्राकृत भाषायें हैं। प्रारंभिक वैयाकरण सामान्य रूप से प्राकृत को ही मुख्य मानते थे और साहित्यिक रचनाओं की यह भाषा समझी जाती थी। शूद्रक के मृच्छकटिक में सूत्रधार द्वारा बोली जाने वाली भाषा को प्राकृत कहा गया है, यद्यपि उत्तरकालीन वैयाकरणों की शब्दावलि में यह शौरसेनी बन गई है।
269. प्राकृत भाषा विभाग
श्रीलालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालय नई दिल्ली 16 में सत्र 1988-99 से प्राकृतभाषा के स्वतंत्र विभाग का शुभारम्भ केन्द्र सरकार की अनुमति से विधि सम्मत तरीके से हुआ है। इसकी स्थापना के पूर्व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नियमावली के अनुसार प्रयोग के तौर पर प्राकृतभाषा के अंशकालीन पाठ्यक्रम (प्रमाणपत्रीय एवं डिप्लोमा पाठ्यक्रम) सत्र 1966-97 से प्रारंभ किये गये थे। दो वर्षों में उनकी सक्रियता, पाठ्यपुस्तकों के निर्माण, जनरुचि से आयोग एवं केन्द्र सरकार ने इस विभाग की स्थापना की स्वीकृति प्रदान की अपेक्षित संसाधन भी विद्यापीठ को प्रदान किये। इस विभाग में अब प्राकृतशास्त्री, आचार्य एवं एम. फिल के पाठ्यक्रम संचालित हैं। 270. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण
19वीं शताब्दी में जर्मन विद्वान डॉ. आर. पिशल द्वारा लिखा गया 224 0 प्राकृत रत्नाकर