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का यह पद्य दृष्टव्य है -
मुंचहि सुंदरि पाअं अप्पहि हसिऊण सुमुहि खग्गं मे। कप्पिअमेच्छशरीरं पेच्छइ वअणाइँ तुम्ह धुअहम्मीरो॥(गा.71)
अर्थात् - युद्ध भूमि पर जाता हुआ हम्मीर अपनी पत्नी से कह रहा है - हे सुन्दरी! पाँव छोड़ दो, हे सुमुखी! हँसकर मुझे तलवार दो। म्लेच्छों के शरीर को काटकर हम्मीर निःसंदेह तुम्हारे मुख के दर्शन करेगा। अवहट्ट का प्रयोग इस ग्रन्थ में बहुत मिलता है। मध्य-युगीन छंदशास्त्रियों ने इस ग्रन्थ की परम्परा का पूरा अनुकरण किया है।
264. प्राकृत प्रकाश : वररुचि
प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बाद वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृत प्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना हैं। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृत प्रकाश के ही लेखक थे। छठी शताब्दी से तो प्राकृत प्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएँ लिखना प्रारम्भ कर दी थीं। अतः वररुचि ने 4-5वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा। प्राकृत प्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेकतथ्य उपलब्ध होते हैं।
प्राकृत प्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के 44 सूत्रों में स्वरविकार एवं स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है। दूसरे परिच्छेद के 47 सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर कितने विशेष व्यंजनों का आदेश होता है। यथा- (1) प के स्थान पर व – शाप > सावो ; (2) न के स्थान पर णवचन > वअण, (3) ष, भा के स्थान पर स-शब्द > सद्दो, एवं भाभ > वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के 66 सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एवं परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों
प्राकृत रत्नाकर 0221