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चांडाली, शाबरी, टक्कदेशी का नियमन किया गया है। अपभ्रंश में नागर, ब्राचड एवं उपनागर का तथा अन्त में कैकय, पैशाचिक, शौरसेनी-पैशाचिक आदि भाषाओं के लक्षण प्रस्तुत किये गये हैं।
यह ग्रन्थ 1938 में पेरिस से प्रकाशित हुआ है। एल. नित्ती डौल्ची ने महत्त्वपूर्ण फ्रेन्च भूमिका के साथ इसका सम्पादन किया है। 1954 में डॉ. मनमोहन घोष ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ मूल प्राकृतानुशासन को प्राकृत कल्पतरू के साथ (पृ. 156-169) परिशिष्ट 1 में प्रकाशित किया है।
प्राकृतानुशासन में तीन से लेकर बीस अध्याय हैं। तीसरा अध्याय अपूर्ण है। प्रारम्भिक अध्यायों में सामान्य प्राकृत का निरूपण है। नौवें अध्याय में शौरसेनी तथा दसवें में प्राच्या भाषा के नियम दिये गये हैं। प्राच्या को लोकोक्तिबहुल बनाया गया है। ग्याहरवें अध्याय में अवन्ती और बारहवें में मागधी प्राकृत का विवेचन है। इसकी विभाषाओं में शाकारी, चांडाली, शाबरी और टक्कदेशी का अनुशासन किया गया है। उससे पता चलता है कि शाकारी में 'क' और टक्की में उद् की बहुलता पाई जाती है। इसके बाद अपभ्रंश में नागर, ब्राचड, उपनागर आदि का नियमन है। अन्त में कैकय, पैशाचिक और शौरसेनी पैशाचिक भाषा के लक्षण कहे गये हैं।
263. प्राकृत पैंगलम्
प्राकृत पैंगलम् छन्दशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह ग्रन्थ है। इसके संग्रहकर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इसका रचनाकाल 13वीं-14वीं शताब्दी के लगभग माना गया है। इस छंद-ग्रन्थ में पुरानी हिन्दी के आदिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त वर्णिक एवं मात्रिक छंदों का विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ दो परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में मात्रिक छंदों का तथा द्वितीय परिच्छेद में वर्णवृत्तों का विवेचन है। इस छन्द ग्रन्थ में प्रयुक्त उदाहरण काव्य-तत्त्वों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। इस ग्रन्थ में मेवाड़ के राजपूत राजा हम्मीर की वीरता का सुन्दर चित्रण है। यथा - गाहिणी छन्द में हम्मीर की वीरता
2200 प्राकृत रत्नाकर