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विकास माना जाता है। कैकय प्रदेश की अपभ्रंश से पश्चिमी पंजाबी, लहंदी, मुल्तानी का तथा टक्क अपभ्रंश से पूर्वी पंजाबी भाषा का विकास स्वीकार किया है । किन्तु अभी तक सिन्धी एवं पंजाबी भाषाओं का प्राकृत अपभ्रंश के साथ विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्राकृत ग्रन्थों में इन देशों के व्यापारियों का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा में सैन्धव और टक्क देश के व्यापारियों की भाषा के शब्दों की बानगी भी प्रस्तुत की है।
प्राकृत और राजस्थानी - जिसे आज राजस्थानी कहा जाता है वह भाषा नागर अपभ्रंश से उत्पन्न मानी जाती है, जो मध्यकाल में पश्चिमोत्तर भारत की काव्यभाषा थी। राजस्थानी भाषा के क्षेत्र और विविधता को ध्यान में रखकर इसकी जनक भाषा को सौराष्ट्र अपभ्रंश तथा गुर्जरी अपभ्रंश भी कहा जाता है । क्योंकि राजस्थानी का सम्बन्ध बहुत समय तक गुजराती भाषा से बना रहा है। राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत जो बेलियाँ हैं हाडौती, ढूढारी, मेवाड़ी और मारवाड़ी आदि उन सब पर प्राकृत एवं एवं अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ध्वनिपरिवर्तन और व्याकरण दोनों की दृष्टि से राजस्थानी मध्ययुगीन भाषाओं से प्रभावित है।
राजस्थानी के संज्ञा रूपों की रचना पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है। प्राकृत में प्रथम विभक्ति के एक वचन के अकार को ओकार होता है। राजस्थानी में भी यही प्रवृत्ति उपलब्ध है । यथा- घोड़ों, छोरो आदि । प्राकृत अपभ्रंश की भाँति राजस्थान में भी विभक्तियों की संख्या कम हो गई है।
प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में कम हो गई थी। अपभ्रंश से बहुत से सर्वनाम राजस्थानी में यथावत् अपना लिये गये हैं । प्राकृत और अपभ्रंश का हूं हउं (मैं) राजस्थानी में खूब प्रचलित है । यथा - हउं कोसीसा कैत, हॅू पापी हेकलौ आदि ।
इसी तरह अपभ्रंश के कांइ (क्या) का प्रयोग राजस्थानी में अधिक होता है। काई छै (ढंढारी), कई है (मेवाड़ी) आदि का प्रयोग द्रष्टव्य है। राजस्थानी भाषा की अनेक धातुएँ एवं अपभ्रंश से ग्रहीत हैं। उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन हुआ है। तुलनात्मक दृष्टि से कुछ क्रियाएँ दृष्टव्य हैं। यथा
प्राकृत रत्नाकर 0 211