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________________ काव्य की मधुरता के संबंध में कवि ने कहा है कि- " सुगंधित एवं शीतल जल से, चतुर व्यक्तियों के वचनों से और उसी तरह प्राकृत काव्य से जो आनंद (रस) उत्पन्न होता है, ( उसमें हम कभी ) संतोष को प्राप्त नहीं होते हैं । अघाते नहीं हैं ।" यथा पाइयकव्वम्मि रसो जो, जायइ तह व छेयभणिएहिं । उययस्स व वासिय-सीयलस्स तित्तिं न वच्चामो ॥ काव्यशास्त्रियों एवं महाकवियों ने भली भांति समझकर प्राकृत काव्यसुषमा का गुणगान किया है । कवि कहता है कि-नये - नये अर्थो की प्राप्ति, अगाध मधुरता, काव्यतत्व की समृद्धि, सरलता एवं संसार के प्रारम्भ से लेकर अब तक की काव्य- सुषमा, यह (सब) प्राकृत में है । यथा णवमत्थ- दंसण संनिवेस -सिसराओ बंधरिद्धीओ । अविरालमिणमो आ-भुवणबंधमिह णवर पाययम्मि || प्राकृत भाषा की इसी मधुरता और काव्यात्मकता का प्रभाव है कि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य के अपने लक्षण-ग्रंथों में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं के उद्धरण दिये हैं। अनेक सुभाषितों को उन्होंने इस बहाने सुरक्षित किया है। ध्वन्यालोक की टीका में अभिनवगुप्त ने प्राकृत की जो गाथा दी है उनमें से एक उक्त द्रष्टव्य है चन्दमउएहिं णिसा णलिनी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लआ । संसेहि सरहसोहा कव्वकहा सज्जणेहिं करइ गरुडं । । रात्रि चन्द्रमा की किरणों से, नलिनी कमलों से, लता पुष्प के गुच्छों से, शरद हंसों से (और) काव्यकथा सज्जनों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त होती है । इस प्रकार काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए आचार्य आनन्दवर्धन, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि अलंकारियों द्वारा काव्य लक्षणों के उदाहरण के लिए प्राकृत पद्यों को उद्धृत करना प्राकृत के साहित्यिक सौन्दर्य का परिचायक है। इस प्रकार वैदिक युग महावीर युग एवं उसके बाद के विभिन्न कालों में प्राकृत भाषा का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट हुआ है और उसका महत्त्व विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ा है । भारतीय भाषाओं के आदिकाल की जनभाषा से विकसित होकर प्राकृत 198 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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