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स्वतन्त्र रूप से विकास को प्राप्त हुई। बोलचाल और साहित्य के पद पर वह समान रूप से प्रतिष्ठित रही है। उसने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्यजगत् को अनुप्राणित किया है। अतः प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है। प्राकृत के स्वरूप की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्राचीन समय से आज तक लोक-मानस को प्रभावित करती रही हैं। तभी प्राकृत कवि के इस उद्गार से सहमत होकर कहना पड़ता है कि "प्राकृत काव्य के लिए नमस्कार है और उसके लिए भी जिसके द्वारा प्राकृत काव्य रचा गया है। उनको भी हम नमस्कार करते हैं, जो प्राकृत काव्य को पढ़कर उसे हृदयंगम करते हैं"। यथा
पाइयकव्वस्स नमो, पाइकव्वंच निम्मियंजेण।
ताहं चियपणमामो, पढिऊण यजेवियाणन्ति॥ 248. प्राकृत के महाकाव्य
प्राकृत के महाकवियों ने अपने-अपने युग के काव्यस्तर एवं प्रवृष्ठि के अनुरूप प्राकृत भाषा को काव्य एवं जीवनमूल्यों से युक्त ऐसी सशक्त रचनाओं से समृद्ध किया है, जो अपने स्वरूप एवं लक्षणों के कारण महाकाव्य की कोटि में प्रतिष्ठित होती हैं। प्राकृत के ये महाकाव्य ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लेकर 16-17 वीं शताब्दी तक लिखे जाते रहे हैं। उनमें से कुछ दुर्भाग्यवश सुरक्षित नहीं रह पाये।
प्राकृत के महाकाव्य पौराणिक धरातल पर भी निर्मित हुए तो उनमें प्रेम और भक्ति को भी विस्तार प्राप्त है। वीररस और शृंगार रस के उत्कर्ष के साथ शान्तरस की साधना भी यहाँ दृष्टिगोचर होती है। कथातत्व का जहाँ संरक्षण हुआ है, वहाँ लाक्षणिक और शास्त्रीय शैली भी अपनायी गयी है। किन्तु प्रस्तुतिकरण में ग्रन्थ विभाजन में प्राकृत के महाकाव्यों ने अपनी स्वतन्त्रता भी सुरक्षित रखी है। जीवन की समग्रता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन यदि इनमें है तो ग्राम एवं व्यक्ति जैसे घटक के वर्णन में भी कवि ने उदारता का परिचय दिया है। अतः प्राकृत के महाकाव्य सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि हैं। रचनाप्रक्रिया और कलात्मक प्रस्तुतिकरण, शैली आदि में प्राकृत के महाकाव्यों का संस्कृत महाकाव्यों के साथ अध्ययन-अनुसंधान का प्रयत्न भारतीय काव्यस्वरूप को नया रूप प्रदान कर सकता है।
प्राकृत रत्नाकर 0199