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थी। महाकवि हाल ने इसी समय प्राकृत भाषा के प्रतिनिधि कवियों की गाथाओं का गाथाकोश (गाथासप्तशती) तैयार किया, जो ग्रामीण जीवन और सौन्दर्यचेतना का प्रतिनिध ग्रन्थ हैं ।
प्राकृत भाषा के इस जनाकर्षण के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया । नाटक समाज का दर्पण होता है। जो पात्र जैसा जीवन जीता है, वैसा ही मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है । समाज में अधिकांश लोग दैनिक जीवन में प्राकृत भाषा का प्रयोग करते थे । अतः उनके प्रतिनिधी पात्रों ने भी नाटकों में प्राकृत के प्रयोग से अपनी पहिचान बनायी रखी। अभिज्ञानशाकुन्तलं की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता, शूद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्रायः सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जनसमुदाय
भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी । वह लोगों के सामान्य जीवन को अभिव्यक्ति करती थी। इस तरह प्राकृत ने अपना नाम सार्थक कर लिया था । प्राकृत स्वाभाविक वचन - व्यापार का पर्यायवाची शब्द बन गया था। समाज के सभी वर्गो द्वारा स्वीकृत भाषा प्राकृत थी । इस कारण प्राकृत की शब्द- सम्पति दिनोंदिन बढ़ रही थी। इस शब्द ग्रहण की प्रक्रिया के कारण एक ओर प्राकृत ने भारत की विभिन्न भाषाओं के साथ अपनी घनिष्ठता बढ़ायी तो दूसरी ओर वह जीवन और साहित्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गयी ।
लोकभाषा जब जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है तथा उसकी शब्द- सम्पदा बढ़ जाती है तब वह काव्य की भाषा भी बनने लगती है। प्राकृत भाषा को यह सौभाग्य दो तरह से प्राप्त है। प्राकृत में जो आगम ग्रंथ, व्याख्या साहित्य, कथा एवं चरितग्रंथ आदि लिखे गये उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है। काव्य की प्रायः सभी विधाओं - महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तककाव्य आदि को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है। इस साहित्य ने प्राकृत भाषा को लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रखा है। अशोक के शिलालेखों के लेखनकाल से लेकर आज तक इन अपने 2300 वर्षो के साहित्यिक जीवन काल प्राकृत भाषा ने अपने काव्यात्मक सौन्दर्य को निरन्तर बनाये रखा है। प्राकृत
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