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महावीर और बुद्ध ने जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए प्राकृत भाषा का आश्रय लिया, जिसके परिणाम स्वरूप दार्शनिक आध्यात्मिक, सामाजिक आदि विविधताओं से परिपूर्ण आगमिक एवं त्रिपिटक साहित्य के निर्माण की प्रेरणा मिली। इन महापुरुषों ने इसी प्राकृत भाषा के माध्यम से तत्कालीन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की ध्वजा लहरायी थी। इससे ज्ञात होता है कि तक प्राकृत मातृभाषा के रूप में दूर-दूर के विशाल जन समुदाय को आकर्षित करती रही होगी। जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम/आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
प्राकृत जन-भाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि उसे सम्राट अशोक के समय में राज्यभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ है। और उसकी यह प्रतिष्ठा सैकड़ों वर्षों तक आगे बढ़ी है। अशोक ने भारत के विभिन्न भागों में जो राज्यादेश प्रचारित किये थे उसके लिए उसने दो सशक्त माध्यमों को चुना। एक तो उसने अपने समय की जन भाषा प्राकृत में इन अभिलेखों को तैयार कराया ताकि वे जन-जन तक पहुँच सकें। और दूसरे उसने इन्हें पत्थरों पर खुदवाया ताकि वे सदियों तक अहिंसा, सदाचार, समन्वय का सन्देश दे सकें। इन दोनों माध्यमों ने अशोक को अमर बना दिया है। देश के अन्य नरेशों ने भी प्राकृत में लेख एवं मुद्राएं अंकित करवायीं। ई.पू. 300 से लेकर 400 ईस्वी तक इन सात सौ वर्षों में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं। यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकास क्रम एवं महत्त्व के लिए ही उपयोग नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।
प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई। वैदिक युग में वह लोकभाषा थी। उसमें रूपों की बहुलता एवं सरलीकरण की प्रवृत्ति थी। महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह आध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी। इससे प्राकृत के प्रचार-प्रसार में गति आयी। वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इसीलिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्व प्राप्त हुआ। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषा गांवों की झोपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक समादृत होने लगी थी। अतः वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम चुन ली गयी
1960 प्राकृत रत्नाकर