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संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन-व्यापार। प्राक् कृत पद से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ है पहिले किया गया। जैन धर्म के द्वादशांग ग्रंथों में ग्यारह अंग ग्रंथ पहिले किये गये हैं। अतः उनकी भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि सभी को सुबोध है। इसी प्राकृत के देश-भेद एवं संस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए हैं। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् अर्थ को स्वीकार करना चाहिये। जन सामान्य की स्वाभाविक भाषा प्राकृत है।
बोलचाल की भाषा अथवा कथ्य भाषा प्राकृत का वैदिक भाषा के साथ जो सम्बन्ध था, उसी के आधार पर साहित्यिक प्राकृत भाषा का स्वरूप निर्मित हुआ है। अतः वैदिक युग से लेकर महावीर युग तक की प्राकृत भाषा ने तत्कालीन साहित्य को भी अवश्य प्रभावित किया होगा। यदि वैदिक ऋचाओं, उपनिषदों, महाभारत और आदि रामायण तथा पालि, प्राकृत आगमों की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया जावे तो कई मनोरंजक तथ्य प्राप्त हो सकेंगे। इसी कड़ी को ध्यान में रखते हुए प्रसिद्ध भाषाविद्वाकरनाल ने कहा है कि -'प्राकृतों का अस्तित्त्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ वर्तमान था, इन्हीं प्राकृतों से परवर्ती साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ है। यही बात आठवीं शताब्दी के कवि वाक्पतिराज ने पहले ही कह दी थी कि- सभी भाषाएं इसी (जनबोली प्राकृत) से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे जल (बादल के रूप में) समुद्र से निकलते हैं और समुद्र को ही (नदियों के रूप में) आते हैं'। यथा
सयलाओ इमंवाया बिसन्ति एत्तो यन्ति वायाओ।
एन्ति समुहूं च्चिय णेन्ति सायराओ च्चिय जलाइं॥ प्राकृत भाषा अपने जन्म से ही जनसामान्य से जुड़ी हुई है। ध्वन्यात्मक और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जनसामान्य के बोलचाल की भाषा रही है। प्राकृत की आदिम अवस्था का साहित्य या उसका बोलचाल वाला स्वरूप तो हमारे सामने नहीं है, किन्तु वह जन-जन तक पैठी हुई थी। महावीर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के विशाल जन-समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत उपलब्ध हुई। इसीलिए
प्राकृत रत्नाकर 0195