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________________ में विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनयनिग्रहगुण, ज्ञानगुण, चरणगुण, मरणगुण- इन सात विषयों का विस्तार से विवेचन है।। विणयंआयरियगुणे सीसगुणे विणयनिग्गह गुणेय। नाणगुणे चरणगुणे मरणगुणे इत्थ वच्छामि॥- चन्द्रवेध्यक,गा.3 इस प्रकीर्णक में 175 गाथाएँ हैं। (12) वीरस्तव (वीरत्थव) इसमें श्रमण भगवान महावीर की स्तुति की गई है। महावीर के अनेक नामों का उल्लेख भी हुआ है। इसमें 43 गाथाएँ हैं। 236. प्रज्ञापना (पण्णवणा) __ अर्धमागधी जैन उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र का चौथा स्थान है। यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान का उद्बोधक सूत्र है। प्रज्ञापना का अर्थ है - ज्ञापित करना या बतलाना। प्रस्तुत आगम में जीव-अजीव की प्रज्ञापना होने के कारण इसे प्रज्ञापन के नाम से जाना गया है। अजीव तत्त्व का वर्णन इसमें संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया गया है तथा जीव तत्त्व की चर्चा अति विस्तार से की गई है। उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र का वही स्थान है, जो अंग साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की तरह प्रज्ञापना के लिए भगवती विशेषण प्रयुक्त हुआ है, जो इसकी महत्ता को सूचित करता है। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग कहा है, किन्तु इसके रचयिता स्वयं श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना को दृष्टि वाद का निष्कर्ष कहा है। प्रज्ञापनासूत्र एवं षट्खण्डागम दोनों का विषय प्रायः समान है तथा षटखण्डागम की रचना दृष्टिवाद के अंश से हुई है। इस दृष्टि से प्रज्ञापना का सम्बन्ध दृष्टिवाद से जोड़ा जा सकता है। प्रज्ञापनासूत्र मे 36 पद हैं, जिनमें स्थान, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन आदि अनेक दृष्टियों से जीवों के भेद-प्रभेद एवं अल्प-बहुत्व पर विचार किया गया है। ___ पन्नवणा में 349 सूत्रों में निम्नलिखित 36 पदों का प्रतिपादन हैं;-प्रज्ञापना स्थान, बहुवक्तव्य, स्थिति विशेष व्युतक्रान्ति, उच्छास, संज्ञा, योनि, चरम भाषा, शरीर, परिणाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, कायस्थिति, सभ्यक्स्व, 184 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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