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________________ और उत्कृष्ट विस्तार और उनकी स्थिति का चित्रण किया गया है। अन्त में ईषत् प्राग्भारा का वर्णन किया है। और औपपातिक के सदृश सिद्धों का वर्णन कर जिनेन्द्रदेव की महिमा और गरिमा का वर्णन कर कहा कि भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्तुति पूर्ण हुई । प्रस्तुत प्रकीर्णक के रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं। (10) मरणसमाधि (मरणसमाही) मरणसमाधि के अपरनाम मरणविभक्ति है। यह प्रकीर्णक सभी प्रकीर्णकों में बड़ा है- (1) मरणविभक्ति, (2) मरणविशोधि, (3) मरण समाधि (4) संलेखनाश्रुत (5) भक्तपरिज्ञा, (6) आतुरप्रत्याख्यान (7)महाप्रत्याख्यान (8) आराधना इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई है। आचार्य ने समाधिमरण के कारणभूत (1) आलोचना (2)संलेखना (3) क्षमापना (4) काल (5) उत्सर्ग (6) उद्रग्रास (7) संथारा (8) निसर्ग (9)वैराग्य (10) मोक्ष (11) ध्यान विशेष (12) लेश्या (13) सम्यक्त्व (14) पादोपगमन- ये चौदह द्वार बताये हैं। संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य ये दो प्रकार बताये हैं, कषायों को कृश करना यह आभ्यन्तर संलेखना है और काया को कृश करना यह बाह्य संलेखना संलेहणा यदुविहा अभितरिया य बाहिराचेव। अब्भितरिय कसाए बाहिरिया होइ यसरीरे॥- मरणसमाधि गा.176 संलेखना की विधि पर भी प्रकाश डाला है। परीषह सहन करते हुए पादोपगमन संथारा करके सिद्धगति प्राप्त करने वालों के दृष्टान्त भी दिये हैं। अन्त में अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं पर भी प्रकाश डाला है। (11) चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का अर्थ है राधावेद । जैसे सुसज्जित होने पर भी अन्तिम समय में किन्चितमात्र भी प्रमाद करने वाला वेधक राधावेद का वेध नहीं कर सकता उसी प्रकार जीवन की अन्तिम घड़ियों में किन्चितमात्र भी प्रमाद का आचरण करनेवाला साधक सिद्धि का वरण नहीं कर पाता। अतः आत्मार्थी साधक को सदा-सर्वदा अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए। प्रस्तुत प्रकीर्णक प्राकृत रत्नाकर 0 183
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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